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जेन-दर्शन लेकर पुत्रादिकों को पूर्ण दश दिन का सूतक मानना चाहिये । यदि स्त्री वा पुरुप अत्यंत रोगी हो और उसको सृतक पातक लग जाय तो सूतक पातक की अवधि समाप्त होने पर उसकी शुद्धि इस प्रकार करनी चाहिये कि एक कोई नीरोग मनुप्य वा स्त्री स्वयं स्नान कर उस रोगी का स्पर्श करे तथा फिर स्नान कर उसका स्पर्श करे । इस प्रकार दशवार स्नान कर उसका स्पर्श करे फिर अन्त में गीले वस्त्र से उसको पोछकर वस्त्र वदलवा देखें, इस प्रकार करने से उस रोगी के लिये सदाचार को निरूपण करने वाली पूर्ण शुद्धि मानी जाती है । अथवा जन्म मरण के सूतक पातक के अन्त में होने वाली शुद्धि विशेप रोगी पुरुषों के लिये वार वार नमस्कार मंत्रको पढकर गंधोदक के छींटे देने से तथा पुण्याहवाचन मंत्र के पट देने से भी मानी जाती है । ये गंधोदक के छींटे कई बार देने चाहिये । पति के मरने के दश दिन के भीतर ही यदि पत्नी रजःस्वला हो जाय अथवा प्रसूता हो जाय तो उसे अपने समय पर शुद्ध होकर तथा स्नान कर वस्त्रादिक का त्य ग करना चाहिये । याद रजःस्वला हुई है तो चौथे दिन और प्रसूता हुई है तो एक महिना बाद स्नान कर वस्त्रादिक का त्याग करना चाहिए । यदि कोई पुरुप विजली से मर जाय अथवा अग्नि में जलकर मरजाय तो उसके घरवालों को प्रायश्चित्त लेना चाहिये । फिर दश दिन का सूतक मानना चाहिये । यदि कोई पुरुष विप खाकर आत्म हत्या करले अथवा किसी शस्त्र से प्रात्म हत्या करले तो उसके घरवालों की शुद्धि प्रायश्चित्त से ही हो सकती है अथवा अनेक व्रतों के पालन करने से होती है। ऐसे