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जैन-दर्शन
१७] मार्ग कहलाते हैं। उन मिथ्या मार्गों में न तो स्वयं कभी प्रवृत्त होना और न किसी को प्रवृत्त होने के लिये सम्मति देना अमूह दृष्टि अंग है। जो मनुष्य स्वयं मिथ्यामागें में प्रवृत्त होता है वा दूसरों को प्रवृत्त होने के लिये सम्मति देता है वह स्वयं भी अपने आत्मा का कल्याण करता है और सम्मति देकर अन्य जीवों को भी.अकल्याण या पापमय मार्ग में प्रवृत्त कराता है। सम्यग्दृष्टी पुरुष मोक्ष मार्गका यथार्थ स्वरूप समझता है और इसीलिये वह मिथ्यामार्ग में न कभी प्रवृत्त होता है और न कभी किसी को सम्मति देता है । वह अपने इस सम्यग्दर्शन के अमूढदृष्टि अंगको पूर्ण रूप.से पालन करता है।
सम्यग्दर्शन का पाचवां अंग उपगृहन अंग है। उपग्रहन शव्दवा अर्थ छिपाना है। यदि किसी कारण से किसी धर्मात्मा पुरुष की निंदा होती हो तब उसको दूर करना, निंदा न होने देना उपगृहन अंग है । धर्मात्मा की निंदा होने से धर्म की निंदा होती है; इसलिये धर्म की निंदा दूर करने के लिये धर्मात्मा की निंदा कभी नहीं होने देना चाहिये । यदि उसका वह अपराध सत्य हो' तो समझा बुझाकर छुड़वा देना चाहिये । इस पांचवें अंगका नाम उपवृहण भी है । उपवृहण शब्दका अर्थ वृद्धि करना है। दोषों को दूरकर आत्मा के गुणों को प्रकट करना-गुणों की वृद्धि करना उपगूहुन वा उपवृहण अंग है । इस अंगके द्वारा दोष दूर होते है
और गुणों की वृद्धि होती है। इसलिये यह अंग उपगूहुन या उप· वृहण दोनों नामों से कहा जाता है।