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जैन-दर्शन
१५] ही मोक्ष मार्ग में अपनी प्रवृत्ति करता है यही उसका निःशंकित अंग है। ... दूसरे अंगका नाम निकांक्षित अंग है । निःकांक्षितका अर्थ है किसी प्रकार की इच्छा नहीं करना ।' सम्यग्दृष्टी पुरुष समझता है कि इस संसार में जीवों को जो कुछ सुख दुःख प्राप्त होता है वह सव पूर्वोपार्जित कोंके उदय से होता है। विना कमों के उदय से कुछ नहीं होसकता । यही समझकर वह अनेक प्रकार व्रत उपवास आदि करता हु प्रा भी उनसे इस लोक या पर लोक' संबंधी किसी भी प्रकार की विभूति की या सुख की इच्छा नहीं करता। वह जो कुंछ व्रत उपवास करता है वह सब आत्म कल्याण के लिये, इन्द्रियों को दमन करने के लिये एवं ध्यान स्वाध्याय की सिद्धि के लिये करता है। इस प्रकार वह सम्यग्दृष्टी पुरुष किसी प्रकार की इच्छा या कामना नहीं करता । यही उसका निकातित अंग है।
। तीसरे अंगका नाम निर्विचिकित्सा अंग है। विचिकित्सा का अर्थ ग्लानि करना है, औरः ग्लानि न करना निर्विचिकित्सा अंग है। संसार में अच्छे बुरे सब प्रकार के पदार्थ हैं। उनसे राग द्वष करने से उनका स्वभाव कभी नहीं बदलता;: वह-ज्योंका त्यों रहता है । इसलिये किसी भी अनिष्ट पदार्थ से ग्लानि करना किसी 'प्रकार भी लाभ 'दायक नहीं है, प्रत्युत उससे केवल अशुभ कर्मों
का"बंध होता है। यही समझ कर सम्यग्दृष्टी पुरुषः किसी भी 'पदार्थ से ग्लानि नहीं करता। विशेषकर वह मुनियों के परम पूज्य शरीर में विशेष अनुराग रखता है । यद्यपि किसी समय