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जन-दर्शन
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२२७] उसी प्रकार उसकी गति विशेष प्रक्रिया भी अनादि है । तथा उसके साथ २ समस्त वस्तुओं का स्वभाव जीवों का आत्मधर्म रूप व अहिंसारूप स्वभाव भी अनादि है । अहिंसा रूप स्वभाव ही जैन धर्म है, इसलिये वह भी अनादि है।
इसके सिवाय यह बात भी समझ लेना चाहिए कि विदेह क्षेत्र की कमभूमियों में सतत तीर्थकर चक्रवत्ती आदि महा पुरुष उत्पन्न होते रहते हैं । वहां पर इस समय भी बीस तीर्थंकर समवसरण सहित विद्यमान हैं। तथा दो तीन कल्याण के धारक और भी अनेक तीर्थङ्कर होते रहते हैं । यह प्रवाह अनादि काल से चला आ रहा है । भरत ऐरावत क्षेत्रों में काल परिवर्तन होने से चौबीस तीर्थङ्कर अवसर्पिणी काल में होते हैं और चौवोस ही उत्सर्पिणी काल में होते हैं । जिस प्रकार संसार अनादि है उसी प्रकार अपने २ काल में होनेवाला तीर्थङ्करों का प्रवाह भी अनादि है। वे समस्त तीर्थंकर अनादि काल से चले
आये वस्तुस्वभाव व आत्म-स्वभाव रूप धर्म का व अहिंसा धर्म का प्रचार करते रहते हैं। क़ाई भी तीर्थकर अनादि काल से चले
आये उप्त आत्म-धर्म व अहिंसा धर्म में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं करते हैं। इसका भी कारण यह है कि वस्तुस्वभाव में व प्रात्म-स्वभाव में कभी भी परिवर्तन नहीं होता है । इसलिये जैन धर्म में भी कभी परिवर्तन नहीं हो सकता है। इस प्रकार भी यह जैन धर्म अनादि है।