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जेन-दर्शन
२२१] काल कहलाता है। इस प्रकार दश कोडाकोडी सागर की अवसर्पिणी और दश कोडाकोडी सागर की उत्सर्पिणी होती है। सुषमा सुषमा कालके बाद फिर अवसर्पिणी काल का सुषमा सुषमा काल आता है । इस प्रकार यह काल चक्र सदा घूमता रहता है। जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों अनादि हैं ।
यह संसार अनादि है । इसमें परिभ्रमण करने वाले जीव भी अनादि हैं और उस परिभ्रमण के कारणभूत कर्म बंधन भी बीज वृक्ष के समान अनादि हैं। उन कर्मों में एक नामकर्म है और उसके अन्तभेदों में एक जाति नामकर्म है जिसके अनेक भेद हैं। आचार्य प्रवर श्री सोमदेवने लिखा है। .
जातयोऽनादयः सर्वास्तकियाऽपि तथाविद्या । अर्थात-जातियां सब अनादि हैं और उनकी क्रिया भी अनादि काल से ज्यों की त्यों चली आ रही हैं।
एक प्रकार की वस्तुओं का नाम जाति है और वह जाति भेद मनुष्यों में पशुओं में पक्षियों में देवों में नारकियों में तथा जड पदार्थों में भी पाया जाता है। जिनके आचार विचार स्वभाव समान हों उन्हें एक जाति के समझना चाहिये । यह व्यवस्था अनादिकाल से सर्वत्र चली आरही है। यहां पर इतना और समझ लेना चाहिये कि जहां जहां कर्म भूमि हैं और उनमें जो विवाह संबंध होते हैं वे सब अपनी ही जातिमें होते हैं विवाह सबंध दूसरी