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________________ - - - - - - जैन-दर्शन करते रहते हैं। कर्मों के साथ साथ उनका शरीर भी नष्ट हो जाता है । इसलिये वे सिद्ध परमेष्ठी शुद्ध आत्ममय तथा शुद्ध केवल ज्ञानमय विराजमान रहते हैं । इस प्रकार अत्यन्त संक्षेप से गुणस्थानों का स्वरूप है। प्रमाण नय जीवादिक समस्त तत्त्वों का ज्ञान प्रमाण और नयों से होता है । सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहते हैं। मिथ्याज्ञान कभी प्रमाण नहीं हो सकता । प्रमाण के दो भेद हैं:-प्रत्यक्ष और परोक्ष । अक्ष शब्द का अर्थ जानने वाला है । जाननेवाला आत्मा है । इसलिये केवल आत्मा के द्वारा जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष कहलाता है, और श्रात्मा से पर अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा जो ज्ञान होता है वह परोक्ष कहलाता है। अवधिज्ञान एवं मनःपर्यय ज्ञान आत्मा से होते हैं परन्तु देश काल की मर्यादा लेकर होते हैं। इसलिये वे एक देश प्रत्यक्ष कहलाते हैं। तथा केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। मतिज्ञान पौर श्रुतज्ञान दोनों परोक्ष ज्ञान हैं तथा मति स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान भागम आदि इनके भेद हैं। .. प्रमाण के एक देश को नय कहते हैं । नय सब विकल्प रूप होते हैं और प्रमाण निर्विकल्प होता है। नय के सात भेद हैंनैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूढ़, एवंभूत । नैगमनय -किसी कार्य के संकल्प करने को नैगम नय कहते हैं। जैसे रसोई बनाने के संकल्प में चौका देना पानी भरना
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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