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जैन-दर्शन
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से समस्त परिग्रहों का त्याग कर परम दिगम्बर अवस्था धारण कर सकल चारित्र को धारण करलेता है, मुनियों के अठाईस मूलगुणों को धारण कर लेता है तब वह छठे गुणस्थान वाला प्रमत्तसंयत कहलाता है। यहां तक अनंतानुबन्धी अप्रत्याख्यानाचरण प्रत्याख्यानावरण इन कषायों का तथा दर्शन मोहनीय का क्षय वा क्षयोपशम हो जाता है। इसलिये उसके परिणाम अत्यन्त विशुद्ध हो जाते हैं । इस गुणस्थान से वह धर्म्यध्यान का चिन्तवन करता रहता है।
___७. अप्रमत्तसंयत--जब वे मुनि प्रमाद रहित हो जाते हैं तब उनके सातवां गुणस्थान हो जाता है । ध्यान करते समय छठा · गुणस्थान भी रहता है और प्रमाद रहित होने पर सातवां गुणस्थान भी हो जाता है।
सातवें गुणस्थान के उपरिम भाग से आगे के गुणस्थान चढने के लिये दो मार्ग हैं । एक मार्ग उपशम श्रेणी कहलाता है
और दूसरा क्षपक श्रेणी कहलाता है। उपशमश्रेणीवाला कर्मों को उपशम करता जाता है और ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर उपशम किये हुए कर्मों का उदय आजाने से नीचे गिर जाता है। क्षपक श्रेणी वाला कर्मों को नाश करता जाता है और फिर दशवें गुणस्थान से आगे बारह गुणस्थान में पहुंच जाता है। क्षपक श्रेणीवाला किसी आयु का बन्ध नहीं करता तथा चौथे से सातवें · तक अनन्तानुबन्धी और दर्शनमोहनीय का क्षय करलेता है ।