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___ जैन-दर्शन राग द्वेप मोह यादि उत्पन्न होते हैं और राग द्वेप मोह से फिर नवीन कर्म पाते हैं । जिस प्रकार चिकने वर्तन पर धूल जम जाती है उसी प्रकार त्मिा में राग द्वेप प्रगट होने पर मन वचन काय की क्रियाओं के द्वारा श्राई हुई कर्म-वर्गणायें श्रात्मा के साथ मिल जाती हैं और राग द्वेप के कारण उनमें प्रात्मा के साथ ठहरने और सुख दुःख देने की शक्ति पड़ जाती है । श्रात्मा के साथ मिली हुई उन्हीं कर्म वर्गणाओं को कर्म कहते हैं।
श्रात्मा के राग द्वेष रूप परिणाम भी अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे जैसे परिणाम होते हैं वैसे ही फर्म पाते हैं वैसा ही उनमें स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध पढता है ।
बन्ध तत्व के पड़ने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शरीर की रचना सब नाम कर्म के उदय से होती है । भिन्न भिन्न जीवों के भिन्न भिन्न परिणाम होते हैं। मन वचन काय की क्रियाएं भी भिन्न भिन्न होती हैं इसलिए उनके कमें भी भिन्न २ प्रकार के होते हैं । तथा उन कर्मों के उड्य से भिन्न भिन्न प्रकार के सुख दुख प्राप्त होते हैं, भिन्न भिन्न प्रकार के शरीर प्राप्त होते हैं
और शरीर के अवयवों की रचना भी सब भिन्न भिन्न प्रकार की होती है। यही कारण है कि प्रत्येक मनुष्य के मुख की प्राकृति भिन्न भिन्न है तथा हाथ पैर को रेखाएं और अंगृा,वा उंगलियों की रेखाएं भी सव की भिन्न भिन्न हैं। एक मनुष्य के अंगूठे की रेखा दूसरे मनुष्य की रेखा से नहीं मिलती। इससे स्पष्ट सिद्ध हो