________________
-
-
-
-
e
-
w
r
-
-
-
~
-
-
-
-
-
-
-
Po
-
-
जैन-दर्शन दो भेद में । जो कर्म अपना पल देकर नष्ट होते रहते हैं, बर सविपाक निजेरा है। इस निर्जरा ने कोई वाम नहीं होता। तपश्चरण श्रादि द्वारा जो कम दिना दिले नष्टको जाने उसको प्रविपाक निर्जरा करते हैं। ना विपा निराही अात्माका कल्याण करने वाली और मोक्ष प्राप्त कराने वालोनी है। निर्जरा मंबर पूर्वक होती है वही मार देने वाली हानी है।
मोक्ष तय
संबर निर्जरा के होते हुए जो समान काम नष्ट हो । उसको मोज कहते हैं। समस्त कर्म नष्ट हो जाने पर या आत्मा अत्यन्त शुद्ध होजाता है। शुद्ध, बुद्ध, निरंजन, चिदानन्दस्या वीतराग, सर्वक शरीर रहित, राम हर इच्छा प्रादि समस्त विकारों से रहित हो जाता है । तथा फिर उसमें अनन्तानन्त काल तक भी कभी कोई किसी प्रकार का विकार नहीं होता तिर बह संसार में कभी परिभ्रमण नहीं करता। संमार में सबसे बडा कार्य कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त कर लेना है। यह नोन से प्राप्त हो चुकी इलिये यह सिद्ध कहलाता है।
इस प्रात्मा का स्वभाव अर्ध्वगमन करना है। जिस प्रकार अग्नि की ज्वाला ऊपर को ही जाती है, उसी प्रकार श्रात्मा का स्वभाव भी ऊर्ध्वगमन करना है । संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कमों के निमित्त से चारों दिशाओं में गमन करता थ, कर्म नष्ट हो जाने पर विना वायु के अग्नि की चाला के