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जैन दर्शन
१४६ ] क्रोध मान माया लोभ, हास्य रति अति शोक भय जुगुप्सा स्त्रीवेद पुंवेद नपुंसकवेद इस प्रकार पच्चीस कषाय हैं। सत्यमनोयोग असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग,, सत्यवचनयोग असत्यवचनय ग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिकमिश्रकाययोग, वैक्रियककाययोग, वैक्रयिकमिश्रकाययोग, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग और कामेणकाययोग इस प्रकार पन्द्रह योग हैं। तथा प्रमाद के अनेक भेद हैं । ये सब कर्मों के प्रास्त्र के कारण हैं।
ये मिथ्यात्व कपायादिक यदि तीव्र होते हैं तो तीव्र कर्मोंका श्रास्रव होता है और यदि मंद होते हैं तो मंद कर्मोंका श्रास्त्रव होता है । इस प्रकार प्रास्त्र अनेक प्रकार से होता है।
किसी काम के करने का प्रयत्न करना संरंभ है। उसके साधन इकट्ठे करना समारंभ है और उसका प्रारंभ करना प्रारंभ है । ये तीनों मन व बन काय से होते हैं । इसलिये इनके नौ भेद हो जाते हैं। तथा ये नौ भेदों को स्वयं करने, कराने, अनुमोदना करने से सत्ताईस भेद हो जाते हैं । ये सत्ताईस भेद क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायों से होते हैं । इसलिये एक सौ आठ भेद हो जाते हैं। इन एक सौ आठ भदों से प्रत्येक जीवके प्रत्येक समय में कर्मों का आस्रव होता रहता है। इस आस्त्रकको दूर करने के लिये एक सौ आठ दाने को माला बनाई गई है जिसके द्वारा तीनों समय वा कम से कम दोनों समय जप किया जाता है तथा उस जपक साथ ध्यान किया जाता है । यह प्रास्त्रब का साम.न्य स्वरूप है।