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जैन-दर्शन
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और संसार शरीर से विरक्त रहता है वही श्रावक इस श्रेष्ठ समाधिमरण को धारण कर सकता है । संसार में परिभ्रमण करने वाले प्राणी कभी समाधिमरण धारण नहीं कर सकते, वे तो हाय हाय करते हुए ही प्राण त्यागकर देते हैं। अन्त समय में शरीर तो नष्ट होता ही है परंतु उस समय अपने श्रात्मा के रजत्रय गुण को नष्ट न होने देना उसकी रक्षा करते हुए उसे अपने आत्मा के साथ ले जाना ही समाधिमरण है । ऐसा समाधिमरण वास्तव में आत्माका कल्याण करने वाला है। यह ऐसा समाधिमरण अनेक अभ्युदयों का कारण है और परंपरा मोक्षका कारण है। इसलिये श्रावकों को इसको भावना सदा काल रखनी चाहिये और अन्त. काल में उसे धारण करना चाहिये।
तो नष्ट होता देना उसकी है। ऐसा समासमाधिमरण जानिये को ले जाना ही करने वाला है मोक्षका काहिये और
श्रावकों के स्थान
पहले बता चुके हैं कि श्रावकगण एकदेश व्रतों को पालन करते हैं । एक देशका अर्थ थोडा है। थोडे का अर्थ, रुपये में एक पाना भर भी है, चार पाना भर भी है बारह पाना भर भी है
और पौने सोलह आना भर तक है। इसी उद्देश से श्रावकों के ग्यारह स्थान बतलाये हैं। उन ग्यारह स्थानों के नाम इस प्रकार हैं। दर्शन-प्रतिमा, व्रत-प्रतिमा, समायिक प्रतिमा, प्रोपधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग-प्रतिमा, रात्रिभुक्त-त्याग-प्रतिमा, , ब्रह्मचर्यप्रतिमा, प्रारंभ-त्याग-प्रतिमा, परिग्रह-त्याग-प्रतिमा अनुमति-त्याग
प्रतिमा और उद्दिष्ट- त्याग-प्रतिमा । इस प्रकार इन: ग्यारह - शानों को ग्यारह प्रतिमा कहते हैं। .