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________________ - -- - - - - - - - जैन-दर्शन का स्वरूप बतलाया है और यही धर्म का यथार्थ स्वरूप हो सकता है। इसका भी कारण यह है कि संसारी जीवों के जितने दुःख होते हैं वे सब राग द्वष आदि विकारों से और कर्मों के उदय से होते हैं तथा उन कर्मों को या विकारों को नाश करने वाला आत्मा का रत्नत्रय रूप स्वभाव ही होसकता है। उसी रत्नत्रय रूप स्वभाव से समस्त कर्म नष्ट हो कर मोक्षकी प्राप्ति होती है। रत्नत्रयका अर्थ तोन रत्न हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। ये तीन रत्न कहलाते हैं और ये ही मोक्षके साक्षात् कारण हैं। आगे इन्हों का स्वरूप अत्यन्त संक्षेपसे कहते हैं। ३-सम्यग्दर्शनका स्वरूप ग्रह जीव अनादि कालसे इस संसार में परिभ्रमण करता चला आरहा है । राग-द्वेष-मोह के कारण यह सदा काल अनंत कर्मों का बंध करता रहता है और उन कर्मों के उदय होने पर चारों गतियों में अनेक महा दुःख भोगता रहता है । यद्यपि संसार के सब ही जीव सुखकी इच्छा करते हैं परन्तु सुख प्राप्त होने के मार्ग पर नहीं चलते। सुख चाहते हुए भी राग द्वष मोह के कारण सुख प्राप्त होने के विपरीत मार्ग पर चलते हैं। ___ ऊपर बता चुके हैं कि दुःखका कारण राग द्वष मोह है। इसलिये सुख का कारण राग द्वष मोह का अभाव है। राग द्वष मोहका अभाव होने से नवीन कर्मों का पाना बंद हो जाता है और फिर ध्यानादिक के द्वारा पूर्व कर्मोंका यथा संभव नाश होने पर
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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