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जैन-दशन पुत्री के समान मानना, ब्रह्मचर्याणुचत है। इसको स्वदार-संतोष व्रत भी- कहते हैं अथवा परस्त्री-त्यागवत भी कहते हैं । इस. स्वदार-सतोषव्रती को अपने पुत्र पुत्रियों का विवाह करना तो. उसका कर्तव्य हो जाता है परन्तु दूसरे की संतान का विवाह करना दोप है । इसी प्रकार जो स्त्रियां कुलटा है चाहे वे विवाहित हो वा अविवाहिता हों उनके घर आना जाना उनके साथ हंसी करना भी दोप है । काम-सेवन की अधिक लालसा रखना तथा काम सेवन के अंगों से भिन्न अगों में क्रीडा करना इस व्रतके दोष हैं। स्वदार-संतोषव्रत को धारण करनेवले श्रावकों को इनका भो त्याग करदेना चाहिये ।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत-खेत, मकान, सोना, चांदी, पशु, धान्य. दासी, दास, वर्तन, वस्त्र आदि सवको परिग्रह कहते हैं। इन सबका परिमाण कर लेना और उससे अधिक रखने की कभी- इच्छा न करना-परिग्रह परिमाणःगुव्रत है। यदि सवका अलग अलग परिमाण न किया जासके तो रुपयों की संख्या में सबका इकट्ठा परिमाण कर लेना चाहिये । चाहे वह हजारों लाखों वा करोडोंका ही परिमाण क्यों न हो। घरके समस्त पदार्थ उसी. परिमाण के भीतर रहने चाहिये । इस व्रत के कारण तृष्णा वा लालसा छूट जाती है । तथा तृष्णा के छूट जाने से वह श्रावक अनेक पापों से बच जाता है। पहले क्रोध मान माया लोंभ आदिको भी अंतरंग परिग्रह बता चुके हैं। इसलिये श्रावकों को इनका भी यथासाध्या त्याग कर देना चाहिये । क्रोधादिक जितने कम होंगे उतने ही पापों.