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(४) सम्राट् "प्रकवर" "श्री होर विजय सूरि" से प्रभावित थे। इस सम्बंध में अमरीकी दानिक "दिल म्यूरेट" ने लिखा है:
“मकबर ने जनों के कहने पर शिकार छोड़ दिया था पोर नियन्त्र तिथियों पर हल्याए रोक दी थी। जैन धर्म के प्रभाव से ही अकबर ने अपने द्वारा प्रचारित 'दीन-ए-इलाही' नामक सम्प्रदाय में 'मांस. भक्षण के निषेध का नियम' रखा था"
(xi) जैन मत्री, दण्डनायक और अधिकारियों के जीवन वृत्त बहुत ही विस्तृत हैं । वे विधर्मी राजाओं के लिये भी विश्वासपात्र रहे हैं । उनकी प्रामाणिकता और कत्तय॑-निष्ठा की व्यापक प्रतिष्ठा थी।
राष्ट्रीय भावना से समन्वित हमेशा जैन धर्मानुयायी रहे आशाशाह ने महाराणा प्रताप के पिता उदयसिह की रक्षा का भार लिया पौर युवराज होने पर चित्तौड़ की गद्दी पर बिठलाया । चित्तौड़, उदयपुर के परास्त हो जाने पर महाराणा प्रताप जब सिन्ध को जाने लगे और मातृभूमि को अन्तिम प्रणाम ज्यों ही किया उसी समय भामाशाह पाए पौर राणा के चरणों में इतना धन लाकर पटक दिया जिससे 24000 सैनिक बारह वर्ष तक युद्ध लड़ सकते थे।
राणा ने कहा भामा इतना धन पाने पर तुम्हें लालच नही आया? मामा:-महाराज यह सभी सम्पत्ति देश की है, आप जंगल की खाक छाने और मै ऐश्वर्य भोगू !
राणा ने मिट्टी उठाई और भामा के मस्तक पर तिलक कर दिया और कहा जब तक मेरे वश में कोई राजा रहेगा और तेरे वश मे पुत्र रहेगा वह इस राज्य का मत्री और सेनापति बनेगा।
जैनत्व का अकन तप त्याग आदि चारित्रिक मूल्यों से ही हो सकता है।