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लिये तालाबो तथा नहरो का बनवाना, नई इमारतो की तामीर आदि कुछ ऐसे सर्वप्रिय कार्य किये जिससे वह अपनी प्रजा के स्नेहभाजन बन गये ।
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अब उन्होने अपनी तलवार म्यान से निकाली और दिग्विजय के लिये अपनी राजधानी से प्रयाण किया । सर्वप्रथम उन्होने पश्चिमीय भारत पर आक्रमण किया और " मुशिक" क्षत्रियो की राजधानी पर अधिकार कर लिया । बारह वर्षों तक प्रतिवर्ष वह अपने क्षात्र धर्म का पराक्रम प्रकट करते रहे । “राष्ट्रीय" और "भोजिक" क्षत्रियों को अधीन किया । दक्षिण भारत के “पाण्ड्य" राजाश्रो ने स्वय 'भेट' भेजकर महाराज खारवेल से मैत्री सम्बध स्थापित किये । मौर्य - राज्य सहारक " पुष्यमित्र" पर भी आक्रमण किया और कुछ समय पश्चात् पुनः मगध पर आक्रमण करके पुष्यमित्र "बृहस्पतिमित्र" को अपने सन्मुख नतमस्तक होने पर बाध्य किया । मगध राज्य से विपुल धनवैभव प्राप्त करने के पश्चात् "कलिंग जिन" की अमूल्य मूर्ति जिसे पूर्व वर्ती नद वश के राजा विजय पुरस्कार में मगध ले गये थे, खारवेल उसे वापिस कलिंग ले आया । कलिंग की प्रजा इस महान् विजयपुरस्कार की पुन. वापिसी पर हर्षोल्लास में सम्राट् खारवेल की जयजयकार करने लगी ।
खारवेल की बलशाली और विजयी सेनाओं के आगे “दिमेत्र " (विदेशी यूनानी राजा ) न टिक सका । उसने मथुरा, पाचाल और साकेत पर अधिकार जमा रखा था । उसे बलात् पीछे हटना पडा । इस प्रकार खारवेल ने विदेशी जुए से भारत को आजाद कराया ।
प्रतिवर्ष अपनी विजयो के उपलक्ष्य में खारवेल अपनी राजधानी तोसल में वापिस पहुच कर विशिष्ट समारोह तथा धर्मोत्सव मनाता, निर्धनो तथा साधुप्रो को दान देता, जन-कल्याण के कार्य करता, भवन निर्माण कराता, नहरे खुदवाता और जिन मंदिर बनवाता था ।