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जैनाचार्यों ने, जैन मुनियों ने अहिसा, तप व त्याग की कसौटी पर जो उच्चादर्श समाज के सामने रखा है वह आज भी भारत के लिये गौरव की बात है।
सौराष्ट्र में 'अहिसक भावना' को जो उल्लेखनीय प्रश्रय मिला है, 'वह जैनाचार्यों की ही देन है। उसका सुन्दर परिणाम अनेक रूपों में हमारे सामने आया है । स्वामी दयानंद ने वेदों का जो 'अहिंसापरक' अर्थ किया और महात्मा गांधी ने जो 'अहिंसा नीति' अपनाई, उसके पीछे सौराष्ट्र का शताब्दियों का अहिंसामय वातावरण ही कारण है। गांधी जी को तो बेचर स्वामी ने विलायत जाने से पूर्व "मद्य, मांस और परस्त्रीगमन" का त्याग करवाया था। कवि 'रायचंद्र जैन के प्रति उन्होने अपना आदर भाव प्रकट किया है। "मेरे जीवन पर जिन व्यक्तियो की छाप है उनमें रायचंद्र भाई मुख्य हैं"। और इसीलिये उनके सम्बन्ध में उनकी लेखनी से आभारपूर्वक उद्गार व्यक्त हुए हैं ।
इस अणुयुग मे जैनाचार्यों द्वारा प्ररूपित महावीर की अहिंसा ही शान्ति ला सकती है । परन्तु कई राष्ट्र अपनी हिंस्रवृत्ति को छुपाने के लिये 'अहिंसा का लबादा' अोढते हैं । यह खतरनाक है । अहिसा हृदयों से फूटनी चाहिये और कार्यरूप में प्रकट होनी चाहिये।
विश्व सभ्यता के विकास की कहानी यही है कि "किस दर्जा उसने अहिसा को अपनाया।"