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दान कहलाता है । लालच पर जब कोई अंकुश नही रहता तभी चोरी की भावना पनपती है।
मैथुन काम-वासना के वशीभूत होकर स्त्री और पुरुष जब पारस्परिक सम्बन्ध की लालसा करते है तो वह क्रिया मैथुन कहलाती है। मैथुन को "अब्रह्म' कहकर पुकारा गया है । यह पाप आत्मा के सद्गुणो का नाश करता है, शरीर को रोगी और निःसत्व बनाता है, समाज की नैतिक मर्यादापो का उल्लघन करता है और उन्नति मे बाधक है।
परिग्रह किसी भी पर-पदार्थ को ममत्व भाव से ग्रहण करना परिग्रह कहलाता है। ममत्व-मूर्छा (लोलुपता) ही वास्तव में परिग्रह है। भौतिक पदार्थों पर आसक्ति रखने से विवेक नष्ट हो जाता है। रागद्वेष के वशीभूत होकर आत्मा अपने लक्ष्य से भ्रष्ट हो जाता है ।
ये पाँच महान् दोष है जो ससार के सब दोषो के मूल कारण है। व्यक्ति, समाज व राष्ट्र की शान्ति इन्ही से भंग होती देखी जाती है । इनका सार समझना आवश्यक है।
जब इन दोषो को दूर किया जाता है तो यही गृहस्थ के पांच अणुव्रत तथा मुनि के लिये पॉच महाव्रत बन जाते है। गृहस्थ इन्हे आशिक रूप मे और साधु पूर्णरूपेण पालन करता है। इनके नाम ये है :
१. अहिसा २. सत्य ३. अस्तेय ४. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह
गृहस्थ के लिये उपयुक्त पाच अणुव्रतों की पोषणा करने के लिये तीज 'गुणवत' और चार 'शिक्षाव्रत' बनाये गये है।