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और युयुत्सा प्रक्रमण को जन्म देती है । आमाशय, रक्तचाप, हृदय की गति, मस्तिष्क के ज्ञानतंतु सब अव्यवस्थित हो जाते हैं । क्रोध की १० अवस्थाएं हैं जो भयंकरता उत्पन्न करती है ।
(आ) अभिमान :- कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, जाति, ज्ञान आदि अपनी किसी विशेषता का घमण्ड करना और उसे बढ़ाचढ़ा कर कहना 'अभिमान' है । अभिमानी अपने बराबर किसी को नही समझता । वह अहंवृत्ति का पोषण करता है । अभिमान की १२ अवस्थाएं है ।
(इ) माया - इसका अर्थ कपटाचार है । माया से पापाचार बढ़ता है । विश्वासघात, द्वेष और प्रसत्यभाषण इसके निकटतम सम्बन्धी हैं । माया की १५ अवस्थाएं हैं।
(ई) लोभ - यह समस्त पापो का जनक है । इसके १६ भेद हैं । कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) प्रवेश की तरतम्यता और स्थायित्व के आधार पर चार चार भागों में बांटे गये है जिनकी जानकारी होने से पाठक को बड़ा लाभ हो सकता है । क्रोध के विषय में नीचे बतलाया है । वैसा अन्य कषायो में भी समझना चाहिए
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(अ) अंनतानुबंधी क्रोध - पत्थर में पड़ी दरार के समान जो मिटती नही ।
(अ) अप्रत्यारव्यानी क्रोध — जलाशय के सूखते हुए कीचड़ की भूमि में पड़ी दरार के समान जो आगामी वर्षा ऋतु में मिटती है ।
(इ) प्रत्याख्यानी क्रोध - रेत मे रेखा के समान जो जल्दी मिट जाती
है।