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धनुष प्रत्यञ्चाहीन रूप में उनके क्षत्रियत्व का प्रतीक मात्र सुरक्षित रहा । सम्भवत. यही वह जीणं धनुष था जिसका श्री रामचन्द्र जी ने चिल्ला चढाया और उसे तोड डाला । व्रात्यों के ज्याहृद ( प्रत्यञ्चाहीन धनुप ) का यही ठीक मेल बैठता है जिसका उल्लेख पूर्व पृष्ठो मे किया जा चुका है ।
२. बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ ( श्ररिष्टनेमि ) :
शौरीपुर ( आगरा उ० प्र ० ) के यादव वशी राजा अधक वृष्णी के समुद्रविजय ज्येष्ठ पुत्र और वसुदेव सबसे छोटे पुत्र हुए । समुद्र विजय नेमिनाथ के पिता थे और वसुदेव के पुत्र हुए 'वासुदेव कृष्ण' । राजा जरासंध के आतंक से यादव शौरीपुर को छोडकर द्वारिका में जा बसे ।
राजकुमार नेमिनाथ का विवाह सम्बन्ध गिरनार ( जूनागढ ) के राजा उग्रसेन की कन्या राजुलमती ( राजीमती) से निश्चित हुप्रा । बारात जब वधू के घर पहुँची तो नेमिनाथ ने अतिथियों के हेतु मारे जाने वाले बदी पश्नो की दिल हिला देने वाली चीत्कार सुनी । नेमिनाथ का कोमल हृदय इस हिसा को सहन न कर सका । उन्होने करु
नाद से प्रेरित होकर उन बदी पशुप्रो को मुक्त कराया और ससार को असार समझते हुए, विवाह क्रम को अस्वीकार करते हुए गिरनार पर्वत की ओर प्रस्थान किया । वही उन्होंने घोर तप किया और कैवल्य' प्राप्त कर प्राचीन 'श्रमण परम्परा' को पुष्ट किया ।
को धार्मिक वृत्ति मानकर भगवान् नेमिनाथ ने इसे सैद्धातिक रूप दिया । इनका 'पशुरक्षण आदोलन' जूनागढ के निकट से प्रारम्भ होकर समूचे सौराष्ट्र और भारत में फैल गया । इस त्यागमूलक भादोलन ने लोगों के नेत्र खोल दिये । आज भी सौराष्ट्र मे शेष भारत की अपेक्षा बहुत कम हिंसा होती है । यह भगवान् नेमिनाथ के इस पशुरक्षरण आंदोलन का ही फल है ।