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जैन भवन नरंगनी ।
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बला से बन जाऊं वन में पक्षी परन्तु प्यारी स्वतंत्रता हो ||१|| जो जीव जलथल आकाश मंडल विहार करते स्वतंत्रता से । उनहीं को धन है कि जगमें जिनको सदा ही प्यारी स्वतंत्रताहो हैं उनको विकार धनकी खातिर तो खुद पराशन हो रहे हैं । नहीं हैं हम राज धनके खवाहां यही तमन्ना स्वतंत्रता हो ॥३॥ नहीं हैं परवाह अगर विधाता बनादे मछली पतंग कुछ भी ॥ बनादे घर चाहे जा नरक में मगर वहां भी स्वतंत्रता हो ||४|| सुखों को भोगूं प्रतन्त्र होकर नहीं है मंजूर मुझको राजा ॥ चाहे फिरूं वन में बनके जोगन मगर यह प्यारी स्वतंत्रता हो ५ हो आज खुद मुखतियार राजा हूं मैं भी तुमरी स्वतंत्र रानी । दिया जो ग़ैरों को राज तुमने तो कहिये कैसे स्वतंत्रता हो ६।।
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मंत्री का राजा को समझाना |
(चाल) कहाँ ले जाऊं दिन दोनों जहां में इसकी है।
महा मृरख कमीने नीच को गुणी जन समझते हो ॥ ग़ज़ब करते हो जो दुर्जन को तुम सज्जन समझते हो ॥ १ ॥ हलाहल को सुधारस नीम को चन्दन समझते हो । ढाक के फूल को गुल नेउ को सावन समझते हो || २ || कंस जालिम को तुम श्रीकृन नारायण समझते हो ! आग को नीर दुःशासन को तुम अर्जुन समझते हो ॥३॥ चोर को शाह छली को संत रजको धन समझते हो ।