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(६४) क्षुधा तृषा नहिं मिटी जिया तूने पीये समंदर नीर । | एक बूंद क्षीरोदधि हो और इक कण होवे समीर ।। अब० ॥ ४ ॥ चौरासी के दुख महाभारी सुनो कान धर धीर। इन दुक्खोंसे जभी छूटे जिन चरणन आवो तीर।। अब० ॥ ५॥ स्वास्थ साथी इस जग जिया साथी नहीं शरीर । न्यामत शरण गहो जिनवर तेरी नैय्या पहुंचे तीर। अब० ॥ ६॥
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तर्ज ॥ हुआ ध्यान में ईश्वर के जो मगन, उसे कोई कलेश लगा न रहा ॥ रहे जब लग मोहके फंदेमें, परमातम ध्यान कछू न रहा। जब परदा मोह हटा दिलका परदा परमातम का न रहा। निज आतम को जब आतम में लिया देख आतम की आंखाँसे। परकाश हुआ परमातम का तब कोई भेद छुपा न रहा रहे०॥१॥ जब परको छोड़ लखा अपने में भिन्न लखा निजको पर सेती। न्यामत आपा पर भेद मिटा परका लवलेश लगान रहा ।। रहे०।२
तर्ज ॥ कोई ना वाकिफो ना फ़हम पय अंदाज क्या जाने ॥ कोई ना वाकिफो नादान चेतन सार क्या जाने । यह अविनाशी अमूरत सच्चिदानन्द सार क्या जाने ।। टेक ॥ बरङ्गे बू है पोशीदा हमारे तनमें यह युलरू । सिवाये आत्मा परमात्मा इसरार क्या जाने.।। कोई० ॥१॥ फँसे हैं जो कि दुनियां में भला यह बात क्या जाने। वही जाने जो निज आतम को जाने और क्या जाने॥कोई०२।
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