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(२०) भव भव में प्रभु दर्शन दीजो। न्यामत यही चित लाई जी। आज० ॥ ५॥
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तर्ज ॥ सर्वे सब सुरनर जुनी तेरा द्वार ॥ सेऊं नित नित एक चित चरण चार ।। टेके ।। चारों मंगल चारों उत्तम। यह ही अशरण शरण चार ।। सेकं० ॥ १ ॥ सिद्ध अरिहंत मुनी जिन शासन । सुमति सुगति नितकरन चार ॥ सेऊ० ॥२॥ सब मंगल में आदि मंगल। सब जग जन अघ हरण चार ॥ सेऊ० ॥ ३ ॥ न्यामत यह निश्चय मन लायो। जग में तारण तरण चार ।। सेकं० ॥ ४ ॥
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सर्ज़ ॥ कहां लेजाऊ दिल दोनों जहां में इसकी मुश्किल है । तुम्हारे दर्श बिन स्वामी मुझे नहीं चैन पड़ती है। छबी वैराग तेरी सामने आंखों के फिरती है ।। टेक ॥ निराभूषण विगत दूपण पदम आसन मधुर भाषण । नज़र नैनों की नासाकी अनीपर से गुजरतीहै ॥ १ ॥ नहीं कर्मों का डर हमको है जब लग ध्यान चरणों में। तेरे दर्शन से सुनते हैं करम रेखा बदलती है।॥ २॥ मिलेगर स्वर्ग की सम्पत अचंभा कौन है इसमें ।
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