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या परनारी छूवतारे गयो रावण नरक मंझार ज्ञानी० ॥३॥ न्यामत पर त्रिय त्यागिये, जैसे चौथ को चंद विकार ज्ञानी० ४
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तर्ज ॥ जावो जावोजी शाम जहाँ रात रहे । हमारे ॥ कैसे आये भोर भये ॥ सुनो सुनोजी बात जरा ध्यान करी। सुमारग क्यों ना लागे एक घड़ी॥ कुमता घर काल अनादि रहे। वह काम किये जो कुमति कहे !! हमरी नहीं एक सुनी । सुनो० ॥ १ ॥ गुरु वार वार हित बात कही। तुम नेक नहीं चितमाही धरी ।। मन माना सोही करी । सुनो० ॥२॥ जब विपति पड़ी सुमता सूझे । धनराज मिले कुमता बुझे । न्यामत नहीं बात मली । सुनो० ॥३॥
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वर्ज ॥ सदा नहीं रहने का मेरी जान हुसनपर यही अकड़ते हो। मिले तुमको भी नहीं आराम।जो तुम औरों को सताते हो । टेक दया धरम को छोड़ पापमें जिया लगाते हो । दुख देते हो औरों को खुद भी दुख पाते हो। क्यों होकर चेतन चतुर सुजान । निपट मूरख बन जाते हो ॥१॥ क्रोध लोभ मद माया के बशमें आजाते हो। दयाभाव को त्याग प्राण प्राणी के गमाते हो। तुम्हारा हो कैसे कल्याण । जीव औरों का दुखाते हो ॥२॥ तप संजम और पूजा भक्ती ज्ञान ध्यान अस्नान ।
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