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सावज पाप ना सर्व जिनालय, त्याने मुढ न माने काय रे । कु० ॥ १६ ॥ मिथ्यातपणे द्रोपदी प्रतिमा पूजी, एक थयां समयत पाई । गन्ध हस्त अचारज कह्यो के, ओघ नियुक्ति वृत्ति मांईरे ।कु० ॥ २०॥ अभवी संगमादिक प्रतिमा पूज, देहिज प्रतिमा सूमि पूज । ते जौत व्यवहार लौकिक रीत छे, बोध नियुक्ति वृत्ति न सूझे रे ॥ कु० ॥ २१ ॥ भगवन्त ने बंदतां तथा दीक्षा लेता, कयो पेचा हियाए मुहाए तायो । तथा परलोक हियाए सुहाए, राय प्रसिणि भगवती मायोरे ॥ ० ॥ २२ ॥ प्रतिमा पूल तथा लाय सूधन काढतां कहयो । पच्छा हियाए सुहाए। राय प्रसणी भगवती माहिं, तिहां पेचा पाठ कह्यो नाहीरे ॥ कु०॥ २३ ॥ प्रतिमा, पून लाय. सूधन काढे, तिहां पचा हियाए नहीं कांहौं । भगवन्त ने वान्दतां दीक्षा लेतां, किहांई पच्छा माठ छे नाही रे ॥ का० ॥ २४॥ पछा हियाए ते यासद मांहि लौकिक खाते मंगलोक । पेच्चा हियाए ते परभव मांहो, लोकोत्तर खाती तहतीक रे॥ कु० ॥ २५ ॥ भाई काहे जिन प्रतिमा पूज, ले तो निस्साए पाठ बाद जाणे। तो बंधक ने अधिकार लाय सूधन काढे, त्यां पिण्ड निस्साए पोठ पिछाणोरे ॥ कु० ॥ २६ ॥ पच्छा पाठ लारे निस्साए को छे, ते इण