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मंग, बोर पोर पोता का समाव पर्शन और उससे राग-द्वेष की वृद्धि होती है। आचारांगचूणि में कहा गया है कि प्रत्येक 'वाद' राग-द्वेष की वृद्धि करनेवाला है और जब तक राग-द्वेष है, तब तक मुक्ति भी सम्भव नहीं। इसप्रकार जैनाचार्यों की दृष्टि में नैतिक पूर्णता को प्राप्त करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग कर जीवनदृष्टि को अनाग्रहमय बनाना आवश्यक माना गया है।
जैन दर्शन के अनुसार एकान्त और आग्रह मिथ्यात्व हैं क्योंकि वे सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करते हैं। जैन तत्त्वज्ञान में प्रत्येक सत्ता अनन्त गुणों का समूह मानी गयी है-अनन्तधर्मात्मकं वस्तुः । एकान्त उममें से एक का ही ग्रहण करता है । इतना ही नहीं, वह एक के ग्रहण के साथ अन्य का निषेध भी करता है, उसकी भाषा में सत्य 'इतना' ही है. मात्र यही सत्य है। इस प्रकार एक ओर वह अनन्त सत्य के अनेकानेक पक्षों का अपलाप करता है। दूसरी ओर वह मनुष्य के ज्ञान को कुण्ठित एवं मीमित करता है। आग्रह को उपस्थिति में अनन्त सत्य को जानने की जिज्ञासा ही नहीं होती, तो फिर सत्य या परमार्थ का साक्षात्कार तो बहुत दूर की बात है । यदि कुएं का मेंढ़क कुएं को ही समुद्र समझने लग जाय तो न तो कोई उसे उसके मिथ्याज्ञान से उबार सकता है और न उसे अथाह जलराशि का दर्शन करा सकता है । यही स्थिति एकान्त या आग्रहवृद्धि की है जिममें न तो तत्व का यथार्यशान होता है और न तत्त्व-साक्षात्कार ही होता है।
जैन विचारधारा के अनुसार मिध्याज्ञान किसी असत् या अनस्तित्ववान् तत्त्व का शान नहीं है, क्योंकि जो असत् है, मिथ्या है, उसका ज्ञान कैसे होगा? जैन दर्शन के अनुसार सारा ज्ञान सत्य है, शर्त यही है कि उसमें एकान्तवादिता या आग्रह न हो । एकान्त सत्य के अनन्त पहलुओं को आवृत्त कर अंश को ही पूर्ण के रूप में प्रकट करता है और इस प्रकार अंश को पूर्ण बताकर व्यक्ति के ज्ञान को मिथ्या बना देता है। साथ. ही आग्रह अपने में निहित छप राग से सत्य को रंगीन कर देता है । इस प्रकार एकान्त या आग्रह तत्त्व-साक्षात्कार या आत्म-साक्षात्कार में बाधक है। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्व, परमार्थ या आत्मा पक्षातिक्रान्त है, अतः पक्ष या आग्रह के माध्यम से उसे नहीं पाया जा सकता। वह तो परमसत्य है, आग्रहबुद्धि उसे नहीं देख सकती। विचार या दृष्टि जब तक पक्ष, मत या वादों से अनावरित नहीं होती, सत्य भी उमके लिए अनावृत नहीं होता। जब तक आंखों पर राग-द्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है, अनावृत सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं।
दूसरे, आग्रह स्वयं एक बन्धन है । वह वैचारिक आसक्ति है । विचारों का परिग्रह है। आसक्ति या परिग्रह चाहे पदार्थों का हो या विचारों का, वह निश्चित ही बन्धन
१. आचारांगचूणि, १७१