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जन, बोड और गोता का समान दर्शन उदाहरण मजिामनिकाय का उपालिसुत्त और दूसरा मूत्रकृतांग का है।'
यद्यपि जैन परम्परा ने नवकोटिपूर्ण अहिंसा के पालन पर बल दिया, लेकिन नवकोटिक अहिंसा के पालन में जब साधु-जीवन के व्यवहारों का सम्पादन एवं संयमी जीवन का रक्षण भी असम्भव प्रतीत हुआ तो यह स्वीकार किया गया कि शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसा-दोष का अभाव होता है। इसी प्रकार मन्दिर निर्माण, प्रतिमापूजन, तोषयात्रा आदि के प्रसंग पर होनेवाली हिंसा विहित मान ली गयो । परिणाम यह हुआ कि वैदिक हिंसा हिंसा नहीं है, इस सिद्धान्त के प्रति की गयी उनकी आलोचना स्वयं निर्बल रह गयी। वैदिक पक्ष की ओर से कहा जाने लगा कि यदि तुम कहते हो कि शास्त्रविहित हिमा हिंसा नहीं है तो फिर हमारी आलोचना कैसे कर सकते हो ?' इस प्रकार आलाचनाओं और प्रत्यालोचनाओं का एक विशाल साहित्य निर्मित हो गया, जिसका समुचित मूल्यांकन यहाँ सम्भव नहीं है। फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि इम समग्र वाद-विवाद में जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में मौलिक रूप से सदान्तिक मतभेद अल्प ही है । प्रमुख प्रश्न व्यवहार का है। व्यावहारिक दृष्टि मे जैन और वैदिक परम्पराओं में निम्न अन्तर खोजा जा मकता है
(१) जैन परम्परा पूर्ण अहिंमा के पालन सम्बन्धी विचार को केवल उन्हीं स्थितियों में शिथिल करती है जिनमें मात्र संयममूलक मनि-जीवन का अनुरक्षण हो सके, जबकि वैदिक परम्परा में अहिंमा के पालन में उन सभी स्थितियों में शिथिलता की गयी है जिनमें सभी आश्रम और सभी प्रकार के लोगों के जीवन जीने और अपने कर्तव्यों के पालन का अनुरक्षण हो सके।
(२) यद्यपि जैन आचार्यों ने संयममूलक जीवा के अनुरक्षण के लिए की गयी हिंसा को हिंसा नहीं माना है, तथापि परम्परा के आग्रही अनेक जन आचार्यों ने उम हिंसा को हिंसा के रूप में स्वीकार करते हुए केवल अपवाद रूप में उसका सेवन करने की छूट दी और उसके प्रायश्चित्त का विधान भी किया। उनकी दृष्टि में हिंसा, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, हिंसा है। यही कारण है कि आज भी जैन सम्प्रदायों में संयम एवं शरीर-रक्षण के निमित्त भिक्षाचर्या आदि दैनिक व्यवहार में होनेवाली मूक्ष्म हिंसा के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान है ।
(३) वैदिक परम्परा में हिंसा धार्मिक अनुष्ठानों का एक अंग मान ली गयी और उनमें होनेवाली हिंसा हिंसा नहीं मानी गयी । यद्यपि जैन-परम्परा में कुछ आचार्यों ने धार्मिक अनुष्ठानों, मन्दिर निर्माण आदि कार्यों में होनेवाली हिंसा का समर्थन अल्प-हिंसा और बहु-निर्जरा के नाम पर किया, लेकिन जैन-परम्परा में सदैव ही ऐसी मान्यता का १. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, ५० ४१५. २. अभिधान राजेन्द्रकोश, खण्ड ७, पृ. १२२९.