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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तस्य : अहिंसा, अनाग्रह और मपरिग्रह ७१
जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ को व्याप्ति को लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंमा की इस अवधारणा ने कहां कितना अर्थ पाया है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म में अहिंसा का अर्थविस्तार __ मूमा ने धार्मिक जीवन के लिए जो दस आदेश प्रमारित किये थे उनमें एक है 'तुम हत्या मत करो' किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देता हुआ देखते हैं। इस्लाम ने चाहे अल्लाह को 'रहमानुर्रहीम'-करुणाशील कह कर सम्बोधित किया हो, आर चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करुणा का अर्थ स्वामियों तक ही सीमित रहा। इतर मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन मका है। पुनः यहूदी और इस्लाम दोनों ही धमों में धर्म के नाम पर पशुबलि को मामान्य रूप में आज तक स्वीकृत किया जाता है । इस प्रकार इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनगीलता स्वजाति और स्वधर्मी अर्थात् अपनों मे अविक अर्थविस्तार नहीं पा मकी है। इस गंवेदनशीलता का अधिक विकास हमें ईमाई धर्म में दिखाई देता है। ईमा शत्रु के प्रति भी करुणाशील होने की बात कहते हैं । वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने और पगये, स्वधर्मो और विधर्मी, शत्र और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं । इस प्रकार उनकी कम्णा मम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है । यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाइयों ने धर्म के नाम पर खून की होली खेली हो और ईश्वर-पत्र के आदशों की अवहेलना की हो किन्तु ऐमा तो हम सभी करते हैं । धर्म के नाम पर पशुबलि की स्वीकृति भी ईसाई धर्म में नहीं देखी जाती है। इस प्रकार उममें अहिंमा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। उमकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उममें सेवा तथा महयोग के मूल्यों के माध्यम में अहिंसा को एक विधायक दिशा भी प्रदान की है। फिर भी मामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निपेय की बात वहां नहीं उठाई गई है । अतः उमकी महिमा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है, वह भी ममस्त प्राणी जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका। भारतीय चिन्तन में अहिंसा का अर्थ-विस्तार
चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांमं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, ६.७५.१८) के रूप में एक दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो अथवा 'मित्राम्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समोने' (यजुर्वेद, ३६.१८) के रूप में सर्वप्राणियों के प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो किंतू वेदों की यह अहिंसक चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है । मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिनमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएं भी की गई है । यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद विहित हिमा को हिंसा की कोटि में नहीं