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जैन, बौड और गीता का समान दर्शन
आत्मा ही हिंसा है और आत्मा अहिमा है । प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। आत्मा की प्रमत्त दशा हिंमा को अवस्था है और अप्रमत्त दशा अहिंसा को अवस्था है।
ज्य एवं भाव अहिंसा-अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जन-विचारणा के अनुमार हिंमा क्या है ? जैन-विचारणा हिमा का दो पक्षों से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिमा कहा गया है। द्रव्य हिंमा स्थूल एवं बाह्य घटना है। यह एक क्रिया है जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है । जैन-विचारणा आत्मा को मापेक्ष रूप में नित्य मानती है। अतः हिमा के द्वारा जिसका हनन होता है वह आत्मा नहीं, वरन् प्राण है-प्राण जैविक शक्ति है। जन विचारणा में प्राण दस माने गये हैं । पाँच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी और गरीर का त्रिविध बल, श्वसन-क्रिया एवं आयुष्य ये दम प्राण है। इन प्राण-शक्तियों का वियोजीकरण ही द्रव्य-दृष्टि से हिमा है। यह हिंसा की यह परिभाषा उसके वाह्य पक्ष पर बल देनी है । द्रव्य-हिंसा का तात्पर्य प्राण-शक्तियों का कुण्ठन, हनन तथा विलगाव करना है। __ भाव-हिंसा हिमा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र हिमा के भावात्मक पक्ष पर बल देते हुए हिमा-अहिंसा की परिभाषा करने हैं । उनका कथन है कि रागादि कपायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिमा है। यही जैन-आगमों को विचार दृष्टि का मार है।' हिंमा की पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थमूत्र में मिलती है। तन्वार्थमूत्र के अनुसार गग, द्वेप आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिमा है। हिंसा के प्रकार
जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव इन दो रूपों के आधार पर हिंमा के चार विभाग किये है-१. मात्र शारीरिक हिंमा, २. मात्र वैचारिक हिंमा, ३. शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा, और ४. शाब्दिक हिंसा । मात्र शारीरिक हिंसा या द्रव्य हिंमा वह है जिममें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसक विचार का अभाव हो । उदाहरणम्वरूप, सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या जन्तु की मूक्ष्मता के कारण उमक नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र वैचारिक हिंसा या भाव हिंसा वह है जिसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित हो, लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थित हो। इसमें कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है, लेकिन बाह्य परिस्थितिवश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है, जैसे कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (जन
१. ओषनिक्ति , ७५४
२. अभिधान राजेन्द्र , खण ७, पृ० १२२८