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जन, बोड और गीता का समापन है कि भय और वैर से मुक्त साधक, जीवन के प्रति प्रेम रखने वाले सभी प्राणियों को सर्वत्र अपनी आत्मा के ममान जान कर उनकी कभी भी हिंसा न करे।' यह मेकेन्जी की इस धारणा का, कि अहिंसा भय पर अधिष्ठित है, सचोट उत्तर है । आचारांगसूत्र में तो आत्मीयता की भावना के आधार पर ही हिंसा-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है। उसमें लिखा है-जो लोल (अन्य जीव समूह) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का भी अपलाप करता है। आगे पूर्णात्मीयता की भावना को परिपुष्ट करते हुए महावीर कहते हैं-जिस तू मारना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू शामित करना चाहता है वह तू ही है । जिसे तू परिताप देना चाहता है, वह तू ही है। भक्तपरिज्ञा में भी लिखा है-किसी भी अन्य प्राणी को हत्या वस्तुतः अपनी ही हत्या है और अन्य जीवों की दया अपनी ही दया है। इस प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का आधार आत्मवत् दृष्टि ही है।
डधर्म में अहिंसा का मापार-भगवान् बुद्ध ने भी अहिंसा के आधार के रूप में इमी 'आत्मवत् मर्वभूतेषु' की भावना को ग्रहण किया है । सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं-'जैमा मैं है वैसे ही ये मब प्राणी है. और जैसे ये सब प्राणी हैं वैसा ही में है-- इस प्रकार अपने ममान मन प्राणियों को समझकर न स्वयं किसी का वध करे और न दूसरों से कराए।
गोता में हिंसा के आधार-गोताकार भी अहिंमा के सिद्धांत के आधार के रूप में 'आत्मवत् मर्वभूतेषु' को उदात्त भावना को लेकर चलता है। यदि हम गीता को अद्वैतवाद की समर्थक मानें तो अहिंसा के आधार को दृष्टि से जैन दर्शन और अद्वैतवाद में यह अन्तर है कि जहाँ जैन परम्परा में मभी आत्माओं को तात्त्विक समानता के आधार पर अहिंमा की प्रतिष्ठा की गई है. वहां अतिबाद में तास्थिक बभेव के आधार पर अहिंमा की स्थापना की गई है । वाद कोई भी हो, पर अहिंमा की दृष्टि से महत्त्व की बात एक ही है कि अन्य जीवों के साथ समानता, जीवन के अधिकार का सम्मान और अभेद की वास्तविक संवंदना या आत्मीयता की अनुभूति हो अहिंसा की भावना का उद्गम है। जब मनुष्य में इस सवेदन-शीलता का सच्चे रूप में उदय हो जाता है, तब हिंसा का विचार एक असंभावना बन जाता है। हिंसा का संकल्प सदैव 'पर' के प्रति होता है, 'स्व' या आत्मीय के प्रति कभी नहीं। अतः आत्मवत् दृष्टि का विकास ही अहिंसा का आधार है।
१. उत्तराष्पयन, ६७ ३. वही, ११५।५ ५. सुत्तनिपात, ३॥३७२७
२. आचारांग, १२३
४. भक्तपरिज्ञा-९३ ६. दर्शन और चिन्तन, सन्म २, पृ० १२५