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स्वधर्म की अवधारणा
तुलना-जैन विचारण, में स्वस्थान और परस्थान का विचार साधना के मसरों की दृष्टि से किया जाता है, जबकि गीता में रवस्थान और परस्यान या मधर्म और परधर्म का विचार मामाजिक कर्तव्यों की दृष्टि से किया गया है। जैन-गायना को दष्टि प्रमुख रूप से वैयक्तिक है, जबकि गीता की दृष्टि प्रमुख रूप में मामगिर पद्यपि दोनों विचारधाराएं दूसरे पक्षों को नितान्त अवहेलना भी नहीं करती। इस सम्बन्ध में जैन-विचारणा यह कहती है कि मामान्य गृहस्थ माधक, विशिष्ट गृहप गायकमामान्य श्रमण अथवा जिनकल्पी श्रमण के अथवा माधना-काल की मामानादा अथवा विशेष परिस्थितियों के उतान्न होने की दशा के आवरण के आदशंका है? या आचरण के नियम क्या है और गोता समाज के ब्राह्मण, क्षत्रिय वंश्य और इन चारों वर्गों के कर्तव्य का निर्देश करती है। गीता आश्रम-व्यवस्था को बोकार तो करती है, फिर भी प्रत्येक आश्रम के विशेष कर्तब्य क्या है, इगका मचिन विवचन गीता में उपलब्ध नहीं होता। जैन परम्परा में आश्रम धर्म के कर्तव्यों का हो विशेष विवेचन उपलब्ध होता है । उममे वर्ण-व्यवस्था को गुण, कर्म के आधार पर स्वीकार किया तो गया है, फिर भी ब्राह्मण के विशेष कर्तव्यों के निर्देश के अतिरिक्त अन्य वों के कर्तव्यों का कोई विवेचन विस्तार में उपलब्ध नहीं होता। वस्तुतः गीता की दृष्टि प्रमुखतः प्रवृत्ति प्रधान होने में उगम वर्ण-व्यवस्था पर जोर दिया गया है जबकि जैन एवं बौद्ध दृष्टि प्रमुखतः निवृत्तिपरक होने से उनमें निवृत्यात्मक ढंग पर आश्रम धर्मों की विवेचना ही हुई है। जन्मना वर्ण-व्यवस्था का तो जैनों और बौद्धों ने विरोध किया ही था, अतः अपनी निवृत्तिपरक दृष्टि के अनुकूल मात्र ब्राह्मण-वर्ण के कर्तव्यों का निर्देश करके संतोप माना।
यद्यपि गीता और जैन आचार-दर्शन दोनों यही कहते है कि गाधक को अपनी अवस्था या स्वभाव को ध्यान में रखते हुए, उमी कर्तव्य-पथ का चयन करना चाहिए, जिसका परिपालन करने की क्षमता उमम है । स्व-क्षमता या स्थिति के आधार पर माधना के निम्न स्तर का चयन भी अधिक लाभकारी है अपेक्षाकृत उग उच्च स्तरीय चयन के, जो स्व-स्वभाव, समता और स्थिति का बिना विचार किये किया जाता है। ममग्र जैन-आगम गाहित्य में महावीर के जीवन का एक भी एमा प्रमंग देखने को नहीं मिलता जब उन्होंने माधक की शक्ति एवं स्वच्छा के विपरीत उमे माधना के उच्चतम स्तरों में प्रविष्ट होने के लिए कहा हो। महायोर प्रत्येक गाधक से चाहे वह माधना के उच्चस्तरों ( श्रमण धर्म को मापना ) में प्रविष्ट होने का प्रस्ताव लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ हो या माधना के निम्न स्तर (गहन्थ धर्म को माधना) में प्रविष्ट होने का प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुआ हो, यही कहनं है-हे देवानप्रिय ! नुम्हें जैमा मुम्ब हो वमा कगे, परन्तु प्रमाद मत करो।' वं मायना में इस बात पर जोर १. उपासकदगांगमूत्र, ११२