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स्वधर्म की अवधारणा
गीता में स्वधर्म ____ गोता जब यह कहती है कि स्वधर्म का पालन करते हुए मरना भी श्रेयस्कर है. क्योंकि परधर्म भयावह है, तो हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि इस स्वधर्म और परधर्म का अर्थ क्या है ? यदि नैतिकता की दृष्टि से स्वधर्म में होना ही कर्तव्य है तो हमें यह जान लेना होगा कि यह स्वधर्म क्या है । __ यदि गीता के दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गीता के अनुसार स्वधर्म का अर्थ व्यक्ति के वर्णाश्रम के कर्तव्यों के परिपालन से है । गीता के दूसरे अध्याय में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि स्वधर्म व्यक्ति का वर्ण-धर्म है। लोकमान्य तिलक स्वधर्म का अर्थ वर्णाश्रम धर्म ही करते हैं। वे लिखते है कि "ग्वधर्म वह व्यवसाय है कि जो स्मृतिकारों की चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके स्वभाव के आधार पर नियत कर दिया गया है, स्वधर्म का अर्थ मोक्ष धर्म नहीं है। गीता के अठारहवें अध्याय में यह बात अधिक स्पष्ट कर दी गई है कि प्रत्येक वर्ण के स्वभाविक कर्तव्य क्या हैं । गीता यह मानती है कि व्यक्ति के वर्ण का निर्धारण उसकी प्रकृति, गुण या स्वभाव के आधार पर होता है और उस स्वभाव के अन्गार उसके लिए कुछ कर्तव्यों का निर्धारण कर दिया गया है, जिसका पारपालन करना उसका नैतिक कर्तव्य है । इस प्रकार गीता व्यक्ति के स्वभाव या गुग के आधार पर कर्तव्यों का निर्देश करती है। उन कर्तव्यों का परिपालन करना ही व्यक्ति का म्वधर्म है। गीता का यह निश्चित अभिमत है कि व्यक्ति अपने स्वधर्म या अपने स्वभाव के आधार पर निःसृत स्वकर्तव्य का परिपालन करते हुए मिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है । गीता कहती है कि व्यक्ति अपने स्वाभाविक कर्तव्यों में लगकर उन म्वक्रमों के द्वारा ही उस परमतत्त्व की उपासना करता हुआ मिति प्राप्त करता है । इस प्रकार गीता व्यक्ति के स्वस्थान के आधार पर कर्तव्य करने का निर्देश करती है । समाज में व्यक्ति के स्वस्थान का निर्धारण उसके अपने स्वभाव (गुण, कर्म) के आधार पर ही होता है । वैयक्तिक स्वभावों का वर्गीकरण और तदनुसार कर्तव्यों का आगेपण गीता में किस प्रकार किया गया है इसकी व्यवस्था वर्ण-धर्म के प्रसंग में की गई है।
१. गीता, ३१३५ ३. गीता १८४१-४८ ५. वही, १८५
२. गीता रहस्य, १० ६७३ ४. वही, ४११३