________________
३७
पर नहीं, वरन् कर्म पर ही आधारित है । गीता में श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर हो किया गग है। डॉ. राधाकृष्णन् लिखत है. यहां जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं । हम किस वणं क है. यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नही है। स्वभाव और व्यवमाय द्वारा निर्धारित जाति नियत होती है। युरिष्ठिर कहते हैं, "तत्वज्ञानियों को दृष्टि में केवल आचरण मदाचार। हो जाति का निर्मारक तत्व है।"' वनपर्व में कहा गया है, "ब्राह्मण न जन्म में होता है. न संस्कार में, न कुल में, ओर न वेद के अध्ययन में, ब्राह्मण नेवल यत (आनरण) में होता है । बोद्धागम मुक्त-निपात के गमान महर्षि अत्रि भी कहते है. जा ब्राह्मण धनुष-बाण और अस्त्र-शस्त्र लेकर युद्ध में विजय पाता है वह क्षत्रिय कहलाता है । जो ब्राह्मण गनी बाडी और गोपालन करता है. जिसका व्यवमाय वाणिज्य है वह पैर रहलाता है। जो ग्राह्मण लाख, लवण, केमर, दूध, मक्खन, शहद और मास बंचना है वह गढ़ कहलाता है । जो ब्राह्मण चोर तम्कर, नट का कर्म करने वा, मांस काटनं बाला और माम-मम्प भोगी है वह निगाव कहलाता है। क्रियाहीन, मूगर्व गर्व धर्म विगित, मव प्राणियों के प्रति निदंय ग्राह्मण चाण्डाल कहलाता है।"
डा. भिम्बन लाल आग ने भी गुण-कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था का समर्थन किया:-(अ) प्राचीन वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, लचीली थी। वर्ण-परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था, क्योंकि आचरण के कारण वर्ण परिवर्तित हो जाता था। उपनिषत्रों में वर्णित मत्यमाम जावाल की कथा इसका उदाहरण है। मस्यकाम जाबाल की मन्यवादिता के आधार पर ही उमे ब्राह्मण मान लिया गया था। (ब) मनम्मति में भी वणं-परिवर्तन का विधान है। लिखा है कि "गदाचार के कारण शूद्र वाग हा जाता है और दुगवार के कारण ब्राह्मण मूढ़ हा जाता है। यही बात क्षत्रिय और वैदर के सम्बन्ध में भी है ।" नतिक दृष्टि में गोता के आचार-दर्शन के अनुमार भो कोई एक वगं दूसरं वर्ग में श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि नतिक विकास वणं पर निर्भर नहीं होता है । व्यक्ति स्वाभावानुकल किना भी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करने हा नैतिक पूर्णता या मिद्धि को प्राप्त कर सकता है। वर्ण-व्यवस्था के द्वारा निहित कर्म नैतिक दृष्टि में अच्छे या बुरे नहीं हात, महज कम मदोष होने पर त्याज्य नहीं होते ।"
१. गीतः ४१३, १८४१ २. भगवद्गीता (ग०), पृ० १६३ ३. उद्धृत-भगवद्गीता (रा.), पृ० १६३ ४. महाभारत वनपर्व ३१३।१०८ ५. अविम्मति, ११३४-३८० ६. भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास पृ० ६२५ . छान्दोग्य० ४।४ ८. मनम्मृति, १०.३.
१. गोता, ९८४५-६ १०. वही, २८।४७
११. वहो, १८४८