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स्वहित बनाम लोकहित रहता है न परार्थ, वहाँ तो केवल परमार्थ रहता है। इसमें यथार्थ आत्मार्ग और यथार्ण परार्ग दोनों ही एकरूप है। तथागत के अन्तेवासो शिष्य आनन्द कहते हैं . 'आयष्मान्, जो राग से अनुरक्त है, जो राग के वशीभूत है जो द्वेष से दुष्ट है, देष के वशीभूत है, जो मोह से मढ़ है, मोह के वशीभूत है वह यथार्ण आत्मा को भी नहीं पहचानता है, यथार्ण परार्ण को भी नहीं पहचानता है, यथार्ग उभया को भी नहीं पहचानता है। राग का नाश होने पर, देष का नाश होने पर""मोह का नाश होने पर वह यथार्थ आत्मार्थ भी पहचानता है, यथार्ण परार्य भी पहचानता है, यथार्थ उभवार्ण भी पहचानता है।"
राग, द्वेष और मोह का प्रहाण होने पर ही मनुष्य अपने वास्तविक हित को, दमरों के वास्तविक हित को तथा अपने और दूसरों के वास्तविक सामूहिक या सामाजिक हित को जान सकता है। बुद्ध के अनुसार पहले यह जानो कि अपना और दूगरों का अथवा समाज का वास्तविक कल्याण किसमें है। जो व्यक्ति अपने, दूसरों के और गमाज के वास्तविक हित को समझे बिना ही लोकहित, परहित एवं आत्महित का प्रयाग करता है, वह वस्तुतः किसी का भी हित नहीं करता है।
लेकिन राग, द्वेष और मोह के प्रहाण के बिना अपना और दूसरों का वास्तविक हित किसमें है यह नहीं जाना जा सकता? मम्भवतः मोचा यह गया कि चिन के गगादि से युक्त होने पर भी बुद्धि के द्वारा आत्महित या परहित किममें है, इसे जाना जा गकता है। लेकिन बुद्ध को यह स्वीकार नहीं था। बुद्ध की दृष्टि में तो राग-द्वेष, मोहादि नित के मल हैं और इ. मलों के होते हुए कभी भी यथार्थ आत्महित और परहित को जाना नहीं जा मकता। बुद्धि तो जल के ममान है, यदि जल में गंदगी है, विकार है, चंचलता है तो वह यथार्थ प्रतिविम्ब देने में कथमपि ममर्थ नहीं होता. ठोक इसी प्रकार राग-प मे युक्त बुद्धि भी यथार्थ म्वहित और लोकहित को बनाने में समय नहीं होती है । बुद्ध एक मुन्दर रूपक द्वारा यही बात कहते हैं भिक्षुओं, जैमें पानी का तालाब गंदला हो, चंचल हो और कीचड़-युक्त हो, वहाँ किनारे पर बड़े आंग्ववाले आदमी को न मोपी दिवाई दे, न शंख, न कंकर, न पन्थर, न चलती हुई या स्थिर मछलियां दिखाई दे । यह मा क्यों? भिक्षुओं, पानी के गंदला होने के कारण। एमी प्रकार भिक्षुओं, इमकी मम्भावना नहीं है कि वह भिक्ष मैले (राग-द्वेगदि में यक्त) चिन मे आत्महित जान सकेगा, परहित जान सकेगा, उभयहित जान मकंगा और गामान्य मनुष्य धर्म में बढ़कर विशिष्ट आर्य-ज्ञान दर्शन को जान सकेगा। इसकी सम्भावना है कि भिक्ष निर्मल चित्त में आत्महित को जान मकेगा, परहित को जान मकंगा, उभयहित को जान सकेगा, मामान्य मनुष्य धर्म में बढ़कर विशिष्ट आर्य-दर्शन को जान सकेगा। १. अंगुत्तरनिकाय, ३७१
२. वही, ११५