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बेन. बोड और गीता का समान दर्शन रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है। वह लोक-मर्यादा और लोक-व्यवस्था का ही मूचक है। अतः पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोल ही एक ऐमा पुरुषार्थ है जिसकी मामाजिक मार्थकता विचारणीय है। प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि में उपादेय हो सकती है ? जहाँ तक मोक्ष को मग्णांना अवम्या या तन्व-मीमांमीय धारणा का प्रश्न है उम सम्बन्ध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एकरूपता है और न उसकी कोई मामाजिक सार्थकता ही खोजी जा सकती है। किन्तु इमी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित नहीं है। लगभग सभी भारतीय दानिक इस सम्बन्ध में एकमत है कि मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनावति में है। बन्धन और मुक्ति दोनों ही मनुष्य के मनोवंगों से सम्बन्धित है । ग़ग. दंग, आमक्ति, तृष्णा, ममन्ध, अहम् आदि को मनोवृत्तियां ही बन्धन हैं
और इनग मुक्त हाना ही मुक्ति है । मुनि की व्याख्या करते हुए जन दानिकों ने कहा था कि मोह और क्षोभ म रहित आत्मा को अवस्था ही मुक्ति है। आचर्य शंकर कहते हैं:
'वामनाप्रक्षयो मोतः वस्तृतः मोह और शोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन में ही है । मेरी दृष्टि में मोक्ष मानसिक तनावों से मुक्ति है । यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की मामाग्कि मार्थकता के सम्बन्ध में विचार करना चाहते हैं तो हमें इन्ही मनानियों एवं मानमिक विक्षोभों के मन्दर्भ में उम पर विचार करना होगा। मम्भवतः हम सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि गग, द्वेष, नष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईा, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियां हमारे सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक है। यदि इन मनोवृतियों में मुक्त होना ही मुक्ति का हाई है तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जीवन के माथ जुटा हुआ है। मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नही है अपिनु वह हमारे जीवन मे सम्बन्धित है । मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया है । इमका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तम्य है. जो लोग मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ है। आचार्य शंकर लिखतं है:
दहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलोः ।
अविवाहृदयन्धिमोक्षो मोसो यतस्ततः ।। मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति माध्य नहीं है। उसके लिए कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य परिणाम है । अतः जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह तो जीवन मुकि हो है । जीवन मुनि के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता से १. विवेकचूममणि ३१८
२. वही, ५५९ ।