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जन, बोड और गोता का समाज दर्शन
जाता है तो घृणा और विद्वेष के तत्त्व स्वतः ममाप्त हो जाते हैं । इस प्रकार जहाँ एक
और औपनिपदिक ऋषियों ने एकात्मता को चंतना को जाग्रत कर सामाजिक जीवन के विनाशक घृणा एवं विद्वेप के तत्त्वों को समाप्त करने का प्रयास किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सम्पत्ति के वैयक्तिक अधिकार का निरसन कर ईश्वरी सम्पदा अर्थात् नामूहिक सम्पदा का विचार भी प्रस्तुत किया । ईशावास्योपनिषद् के प्रारम्भ में ही ऋपि बहता है :
ईशावास्यमिदं मर्च यस्किञ्च जगन्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।" अर्थात् इम जग में जो कुछ भी है वह सभी ईश्वरीय है ऐमा कुछ भी नहीं है, जिसे वैयक्तिक कहा जा सके । इस प्रकार श्लोक के पूर्वाद्ध में वैयक्तिक अधिकार का नि:सन करके ममष्टि को प्रधानता दी गई है। इलोक के उत्तरार्द्ध में व्यक्ति के उपभोग एवं संग्रह के अधिकार को मर्यादित करते हुए कहा गया कि प्रकृति की जो भी उपलब्धियाँ हैं उनमें दूसरों (अर्थात् समाज के दूसरे सदस्यों) का भी भाग है । अतः उनके भाग को छोड़कर ही उनका उपयोग करो, संग्रह या लालच मत करो क्योंकि मम्पत्ति किमी एक की नहीं है। सम्भवतः सामाजिक चेतना के विकास के लिए इससे अधिक महत्त्वपूर्ण दूसग कयन नहीं हो सकता था। यही कारण था कि गांधी जी ने इस श्लोक के सन्दर्भ में कहा था कि भारतीय संस्कृति का सभी कुछ नष्ट हो जाये किन्तु यह श्लोक बना रहे तो यह अकेला ही उसकी अभिव्यक्ति में समर्थ है। 'तेन त्यक्तेन भुंजीथाः' में समग्र सामाजिक चेतन। केन्द्रित दिखाई देती है। गीता में सामाजिक चेतना
यदि हम उपनिषदों से महाभारत और उसके ही एक अंश गीता की ओर आते हैं तो यहाँ भी हमें सामाजिक चेतना का स्पष्ट दर्शन होता है । महाभारत तो इतना व्यापक प्रन्थ है कि उसमें उपस्थित समाज-दर्शन पर एक स्वतन्त्र महानिबन्ध लिखा जा सकता है । सर्वप्रथम महाभारत में हमें समाज की आंगिक संकल्पना का वह सिद्धान्त परिलक्षित होता है, जिस पर पाश्चात्य चिन्तन में सर्वाधिक बल दिया गया है। गीता भी इस एकात्मता की अनुभूति पर बल देती है । गीताकार कहता है कि
'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ॥२ अर्थात् जो सुख दुःख की अनुभूति में सभी को अपने समान समझता है वही सच्चा योगी है । मात्र इतना ही नहीं, वह तो इससे आगे यह भी कहता है कि सच्चा दर्शन या ज्ञान वही है जो हमें एकात्मता की अनुभूति कराता है-'अविभक्तं विभवतः तज्ज्ञानं १. ईश १
२. गीता ६।३२