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सामाविकप एवं गायित्व
१०३ स्पविर (पृट-मुनि), रोगी (ग्लान), अध्ययनरत नवदोलित मुनि, कुल, संघ और साधर्मी को सेवा परिचर्या के विशेष निर्देश दिये गये थे।
४. मिनी संघका रक्षण-निशीषचूणि के अनुसार मुनिसंघ का एक अन्य दायित्व यह भी था कि वह असामाजिक एवं दुराचारी लोगों से भिक्षुणी संघ की रक्षा करें। ऐसे प्रसंगों पर यदि मुनि मर्यादा भंग करके भी कोई आचरण करना पड़ता तो वह क्षम्य माना जाता था।
५. संघ के बादेशों का परिपालन-प्रत्येक स्थिति में संघ (ममाज) सर्वोपरि था। भाचार्य जो सघ का नायक होता था, उसे भी संघ के आदेश का पालन करना होता पा। वैयक्तिक साधना की अपेक्षा भी संघ का हित प्रधान माना गया था। संघ के हितों और आदेशों की अवमानना करने पर दण्ड देने की व्यवस्था थी। श्वेताम्बर साहित्य में यहाँ तक उल्लेख है कि पाटलीपुत्र वाचना के समय संघ के आदेश की अवमानना करने पर आचार्य भद्रवाह को संघ से बहिष्कृत कर देने तक के निर्देश दे दिये थे। गृहस्थ वर्ग के सामाजिक दायित्व
१. भिलु-भिणियों की सेवा-उपासक वर्ग का प्रथम सामाजिक दायित्व था आहार, औषधि आदि के द्वारा श्रमण संघ की सेवा करना । अपनी दैहिक आवश्यकताओं के सन्दर्भ में मुनिवर्ग पूर्णतया गृहस्थों पर अवलम्बित था अतः गृहस्थों का प्राथमिक कर्तव्य पा कि वे उनकी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करें । अतिथि मंविभाग को गृहस्थों का धर्म माना गया था। इस दृष्टि से उन्हें भिक्षु-भिक्षुणी संघ का 'माता-पिता' कहा गया था। यद्यपि साधु-साध्वियों के लिए भी यह स्पष्ट निर्देश था कि वे गृहस्थों पर भार स्वरूप न बने।
२. परिवार की सेवा-गृहस्थ का दूमग सामाजिक दायित्व अपने वृद्ध माता-पिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की मेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर साहित्य में उल्लेख है कि महावोर ने माता का अपने प्रति अत्यधिक स्नेह देवकर यह निर्णय ले लिया था कि जब तक उनके माता-पिता जीवित रहेंगे वे संन्यास नहीं लेंगे। यह मातापिता के प्रति भक्ति भावना का सूचक ही है । यद्यपि इम सम्बन्ध में दिगम्बर परम्परा का दृष्टिकोण भिन्न है । जैनधर्म में संन्यास लेन के पहले पारिवारिक उत्तरदायित्वों से मुक्ति पाना आवश्यक माना गया है। मुझे जैन आगमों में एक भी उल्लेख ऐसा देखने को नहीं मिला कि जहां बिना परिजनों की अनुमति से किसी व्यक्ति ने संन्यास ग्रहण किया हो । जैनधर्म में आज भी यह परम्पग अक्षुण्णरूप से कायम है । कोई भी व्यक्ति बिना परिजनों एवं समाज (संघ) की अनुमति के संन्यास ग्रहण नहीं कर सकता है । १. निशीथचूर्णी २८९
२. उपासकदशांगसूत्र १