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में किसी अकेले व्यक्ति का नैतिक बन पाना यदि अशक्य नहीं तो सहज सम्भव भी नहीं है । आज व्यक्ति और समाज-सुधार के लिए एक दोहरे प्रयत्न की आवश्यकता है । व्यक्ति और समाज दोनों के सुधार के सामूहिक प्रयत्नों के बिना आज की दूषित एवं भ्रष्ट सामाजिक स्थिति से छुटकारा पाना असम्भव है ।
आज एक ओर समाजवादी विचारधारा समाज को प्रमुखता देकर व्यक्ति को गौण बनाती है तो दूसरी ओर प्रजातन्त्रवादी विचारधारा व्यक्ति को प्रमुख बनाकर समाज को गौण बनाती है, किन्तु दोनों की विचारधाराएं आज अपने अभीप्सित लक्ष्य को पाने में सफल नहीं है । मानव को जो अपेक्षित है वह उसे न तो रूस और चीन की समाजवादी व्यवस्थाएं ही दे सकी है और न अमेरिका का प्रजातन्त्र हो । यदि हम मानवता को अपनी इच्छित सुख और शान्ति देना चाहते हैं तो हमें व्यक्ति और समाज दोनों को परस्परोपजीवी और सममूल्यवाला मानकर आगे चलना होगा। केवल व्यक्ति-सुधार के प्रयत्न और केवल समाज-सुधार के प्रयत्न तब तक सफल नहीं होंगे जब तक व्यक्ति और समाज दोनों के समवेत सुधार के प्रयत्न नही होंगे ।
वस्तुतः : व्यक्ति और समाज के बीच का यह द्वन्द्व काफी पुराना है और इसके कारण सामाजिक दर्शन में अनेक समस्याएँ उठी हैं । व्यक्ति और समाज में कौन प्रथम है यह तो एक चिरन्तन समस्या है ही किन्तु इसके साथ ही जुड़ी हुई दूमरी समस्या है स्वहित और लोकहित के प्रश्न की । सामान्यतया स्वहित और लोकहित में एक विरोध देखा गया है किन्तु यह विरोध उन्हीं लोगों के लिए है जो व्यक्ति और समाज को एक दूसरे से पृथक् देखते हैं । जो व्यक्ति और समाज को एक समग्रता मानते हैं और उन्हें एक दूसरे से पृथक् नहीं मानते उनके लिए यह प्रश्न खड़ा ही नहीं होता । स्वहित और लोकहित वस्तुतः उसी तरह एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं जैसे व्यक्ति और समाज ।
भारतीय दार्शनिक चिन्तन में प्राचीनकाल से ही समाज-दर्शन के सन्दर्भ तो उपस्थित हैं किन्तु उनकी सम्यक् अभिव्यक्ति के बहुत ही कम प्रयास हुए हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में भारतीय सामाजिक चेतना को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है । दूसरे अध्याय में स्वहित और लोकहित की समस्या का विवेचन किया गया है । तीसरे अध्याय में वर्णाश्रम की अवधारणा को स्पष्ट किया गया है। चौथे अध्याय में स्वधर्म की अवधारणा पर विचार किया गया है। पांचवा अध्याय समाज जीवन के आधारभूत सिद्धान्तों के रूप में अहिंसा, अनाग्रह ( वैचारिक सहिष्णुता ) और अपरिग्रह ( आर्थिक सम-वितरण ) का विवेचन करता है । अन्तिम अध्याय में सामाजिक दायित्वों और कर्तव्यों की चर्चा है ।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रणयन दार्शनिक त्रैमासिक एवं सुधर्मा आदि पत्रिकाओं में मेरे प्रकाशित लेखों एवं मेरे शोध प्रबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनास्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन' के कुछ अध्यायों को लेकर किया गया है । प्रस्तुत