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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय तस्य : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
लकड़ी का बना हो अथवा रस्सी का बना हो, अपितु दृढ़तर बन्धन तो सोना, चांदी, पुत्र, स्त्री आदि में रही हुई आसक्ति ही है ।' सुत्तनिपात में भी बुद्ध ने कहा है कि आसक्ति ही बन्धन है जो भी दुःख होता है वह सब तृष्णा के कारण ही होता है । आसक्त मनुष्य आमक्ति के कारण नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं । आसक्ति का क्षय ही दुःखों का क्षय है । जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं जैसे कमलपत्र पर रहा हुआ जल-बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है ।" तृष्णा से ही शोक और भय उत्पन्न होते हैं । सृष्णा-मुक्त मनुष्य को न तो भय होता है और न शोक । इस प्रकार बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति ही वास्तविक दुख है और अनासक्ति ही सच्चा मुख है । बुद्ध ने जिस अनात्मवाद का प्रतिपादन किया, उसके पीछे भी उनकी मूल दृष्टि आसक्ति नाश ही थी । बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति, चाहे वह पदार्थों की हो, चाहे वह किसी अतीन्द्रिय आत्मा के अस्तित्व की हो, बन्धन ही है । अस्तित्व की चाह तृष्णा ही है । मुक्ति तो विरागता या अनासक्ति ही प्रतिफलित होती है । तृष्णा का प्रहाण होना ही निर्वाण है । बुद्ध की दृष्टि में परिग्रह या संग्रहवृत्ति का मूल यही आमक्ति या तृष्णा है। कहा गया है कि परिग्रह का मूल इच्छा ( आसक्ति ) है । " अतः बुद्ध की दृष्टि में भी अनासक्ति की वृत्ति के उदय के लिए परिग्रह का विसर्जन आवश्यक है ।
गीता में अनासकि गीता के आचारदर्शन का भी केन्द्रीय तत्त्व अनासक्ति है। महात्मा गांधी ने तो गीता को 'अनासक्ति-योग' हो कहा है। गीताकार ने भी यह स्पष्ट किया है कि आसन का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवामना के लिए प्रेरित करता है । कहा गया है कि आम के बन्धन में बंधा हुआ व्यक्ति कामभोग की पूर्ति के लिए अन्याय - पूर्वक अर्थ संग्रह करता है ।" इस प्रकार गीताकार की स्पष्ट मान्यता है कि आर्थिक क्षेत्र में अपहरण, शोषण और संग्रह की जो बुराइयों पनपती हैं वे सब मूलतः आमति से प्रत्युत्पन्न हैं । गीता के अनुसार आसक्ति और लोभ नरक के कारण हैं । कामभोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है । सम्पूर्ण जगत् इसी आसक्ति के पाश में बंधा हुआ है और इच्छा और द्वेष से सम्मोहित होकर परिभ्रमण करता रहता है । वस्तुतः आसक्ति के कारण वैयक्तिक और सामाजिक जीवन नारकीय बन जाता है । गीता के नैतिक दर्शन का सारा जोर फलासक्ति को समाप्त करने पर है । श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन, तू कर्मों के फल में रही हुई आसक्ति का त्याग कर
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१. धम्मपद, ३४५.
३. वही, ३८।१७.
५. धम्मपद, ३३६.
७. मज्झिमनिकाय, ३।२०. ९. गीता, १६।१२.
२. मुत्तनिपात, ६८।५
४. थेरगाथा, १६।७३४. ६. वही, २१६.
८. महानिद्देमपालि १।११।१०७.
१०. वही, १६।१६.