SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनबालगुटका प्रथम भाग। होता है और समवशरण में मोह, भय, द्वेष, विषयों को अभिलाषा, रति, अदेख का भाव, छींक, जम्माई, खांसी डकार, निद्रा, तंद्रा (उघना) क्लेश, विमारी, भख, प्यास, आदि किसी जीत्र के भी मकल्याण तथा विघ्न नहीं होता और जैसे जल जिस वृक्ष में आता है उसो रूप होजाता है जैस ही भगवान की वाणो अपनी अपनी भाषा में सव समझे हैं। अनन्त चतष्टय ॥दोहा॥ ज्ञान अनन्त अनन्त सुख, दरशअनन्त प्रमाल । बल अनन्त अरहंतसो, इष्टदेव पहिचान ।। १३॥ . अर्थ- अनन्त दर्शन, २ अनन्तज्ञान, ३ अनन्तसुख, ४ अनन्त योर्य इतने गुण जिस में हो वह अर्हत हैं चतुष्टयनाम चार का है अनन्त चतुष्टयनामधार अनन्त का है भनन्त नाम जिस का अन्त न हो अर्थात् जिस की कोई हद न हो जब यह मारमा भरहन्त पद को प्राप्त होता है तब इस को अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति होती है। १८ दोष वर्णन। दोहा। जन्म जरा तिरषा क्षुधा, विस्मय आरत खेद। रोग शोक मद मोह भय, निद्रा चिन्ता स्वेद ॥१४॥ राग द्वेष अरु मरण पुनि,यह अष्टा दश दोष । नाहि होत अरहन के सो छवि लायक मोष ॥१५॥ मर्थ-१ जन्म, २ जरा, ३ तृषा, ४ क्षधा, ५ आश्वयं अति (पीडा) ७ खेद (दुःख), ८ रोग, ९ शोक, १० मद, ११ मोह, १२ भय, १३ निद्रा, १४ चिन्ता, पसीना, १६ वेप, १७ प्रीति, १८ मरण । यह १८ दोष अरहंत के नहीं होते। अथ सिद्धों के मूल गुण। सोरठा। समकित दरसन ज्ञान अगुरु लघु अवगाहना । सूक्षम वीरजवान निरावाध गुण सिद्ध के ॥ १६ ॥ , म सम्यक्त्व, २ दर्शन, ३ शान, ४ अगरुलधुत्व, ५ अवगाहनस्य, १ सूहमपना, ७ अनंत वीर्य ८ अव्यायाधत्व यह सिद्धों के ८ मूल गुण होते हैं ।।
SR No.010200
Book TitleJain Bal Gutka Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanchand Jaini
PublisherGyanchand Jaini
Publication Year1911
Total Pages107
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy