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आचार्य चरितावली
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॥ लावली ॥ बड़ गच्छ श्रादिक हुए कई शासन में, चरण मार्ग में भेद पड़ा गण गण मे । १२५० ११५९ १२०४ प्रागमियां, पूनमियां, खरतर जानो,
१२१३ अंचल से यतना कर पांचल माना।
प्रात्म अर्थ ना भाव घटा दुखकारी लेकर॥१३४।। अर्थ-वीर सं० १४६४ यानि वि० सं० ६६४ मे किसी समय विचरते हुए उद्योतन सूरि पावू के पास टेलिगाव पधारे और उसकी सीमा मे विशाल वटवृक्ष की छाया मे बैठकर शासन उदय का विचार करने लगे। उस समय शुभ मुहूर्त जान कर उन्होने सर्वदेवसूरि को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया । वड वृक्ष के नीचे पदस्थापना करने से उसको लोक में बड़गच्छ के नाम से कहने लगे । निर्गन्थ गच्छ का यह पाचवां नाम हुआ।
[ तपागच्छ पट्टावली पृ० १०५ ]
गच्छों के कारण जिन शासन मे जो भेद पड़ा उससे वड गच्छ आदि गच्छो मे देश काल और स्थिति भेद से प्रत्येक के प्राचार मे भी भेद पडता गया जो इस प्रकार है -
सर्वदेव के वाद विनयचन्द्र उपाध्याय के शिप्य मुनि चन्द्रसूरि हुए जो शुद्ध संयमी थे, मात्र छाछ पीकर रहते थे।
उन के गुरुभाई चन्द्रप्रभु मुनि से वि० सं० ११५६ में पूनमिया गच्छ की उत्पत्ति हुई।
वैसे ही वि० सम्वत् १२०४ मे खरतरगच्छ की, सं० १२१३ मे आचलिया मत की, तथा वि० सवत् १२५० मे आगमिक मत ली उत्पत्ति हुई।
आचल मत की धारणा थी कि चद्दर के अचल से यतना कर ली जाय तो मुहपती की क्या जरूरत है। इस प्रकार शासन मे गच्छ तो बढ़े पर साधना बल और आत्मार्थीपन का भाव घटता गया ।