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________________ आचार्य चरितावली अपने शरीर की स्थिति क्षीण देखकर उत्तराधिकारी के लिये संघ मे विचारणा की । उस समय मुनिमण्डल मे उत्तराधिकारी के लिये मतभेद था ।।११७॥ उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में मतभेद लावणी॥ दुर्वलिका को गणि ने लायक समझा, पर मुनिजन के मन को प्रिय था दूजा । भेद बताकर गरिग ने सब समझाया, दुर्बलिका को नायक मान्य कराया। यथायोग्य शिक्षा दी जनहितकारी ॥ लेकर० ॥११॥ अर्थः--प्राचार्य रक्षित ने दुर्वलिका पुष्य को योग्य समझा किन्तु मुनियो का इसमें मतभेद था । आर्य रक्षित के (१) वृत पुप्यमित्र (२) वस्त्रपुष्य, (३, दुर्वलिका पुष्य, (४) विध्य मुनि, (५) फल्गु रक्षित और (६) गोष्ठा माहिल आदि मुख्य शिष्य थे । मुनियो मे से कुछ फल्गु रक्षित को, तो कुछ गोष्ठामाहिल को प्राचार्य वनाने के पक्ष मे थे। प्राचार्य ने सबको समझाने के लिये युक्ति निकाली। उन्होने तीन घड़े मगवाये, एक में उडद, दूसरे मे तेल और तीसरे मे घी भरवाया, फिर उन घड़ो को उल्टा करवाया तो उड़द का घड़ा बिलकुल साफ था। तेल वाले मे कुछ लगा रहा और घी वाले मे वहुत लगा रहा। उन्होने कहा, "दुर्वलिका मे उडद के घडे की तरह मै खाली हो गया हूँ।" आचार्य का भाव समझ कर सवने दुर्वलिका पुण्य को अपना नायक स्वीकार किया । दुर्वलिका पुष्यमित्र का ज्ञानाभ्यास अनुकरणीय था । प्राचार्य ने दुर्वलिका को गण की भोलावण दी और साधुओ को भी यथायोग्य शिक्षा दी ।।११८॥ || लावरणी।। सूरि और मुनिगण को सीख करावे, अनशन करके प्रार्य स्वर्ग पद पावे ।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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