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________________ प्राचार्य चरितावली ॥ लावणी ॥ पूर्वज्ञान हित भद्रगुप्त प जानो, बोले गुरुवर ज्ञान उज्जैनी मे ज्ञान प्रपूर्ण मिलायो । प्राप्त कर आये, आचार्य बनाये । सिंह गिरि ने भी विचरत ग्राये पाटलिपुर यशधारी || लेकर० ॥६८॥ N ५३ अर्थ. - प्रार्य वज्र मुनि की योग्यता देखकर एक बार इनके गुरु धनगिरि ने कहा - " वत्स ! यदि पूर्वो का ज्ञान सीखना है तो अब प्राचार्य भद्रगुप्त के पास जाओ, वहाँ तुम्हे ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी । " - आर्य वज्र ने गुरु के प्रादेशानुसार उज्जयिनी जाकर भद्रगुप्त से - पूर्वो का ज्ञान संपादन किया। सिंहगिरि ने भी जब इन्हे सुयोग्य पाया तो आचार्य पद पर प्रतिष्ठित कर सम्मानित किया। प्राचार्य हो कर वज्र स्वामी एकदा विचरते हुए पाटलिपुत्र पहु चे |85|| ॥ लावणी ॥ धन्य श्रेष्ठि की सुता रुक्मिणी मोही, कोड़ रत्न संग कन्या लो कहे सोही । बोले मुनि जो पुत्री मम अनुरागी, हो वह भी संयम पथ की शुभ रागी । प्रटल प्रतिज्ञा थी मुनिवर की भारी || लेकर० ॥६६॥ अर्थ - पाटलीपुत्र मे धन्य सेठ की पुत्री रुक्मिणी ने जव श्रार्य वज्र की प्रशसा सुनी तो वह उन पर मुग्ध हो गई और उसने यह प्रतिज्ञा करली कि यदि व्याह करूंगी तो ग्रार्य वज्र के साथ अन्यथा कुवारी रहूँगी । पुत्री के विचार समझ कर सेठ ने ग्रार्य वज्र से कहा - "क्रोड़ रत्नो के साथ इस कन्या को आप स्वीकार करो ।" मुनि ने स्पष्ट कह दिया, "यदि तुम्हारी पुत्री मुझ कर अनुरागिणी है तो वह भी सयम ग्रहण कर सकती है ।"
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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