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प्राचार्य चरितावली
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अर्थ.-आर्य रक्षित ने काफी समय दुर्वलिका मित्र नाम के अपने एक शिप्य को वाचना देने मे लगाया। दुर्वलिका मित्र ने कुछ दिनो वाद गुरु से कहा-"आपके वाचना देने से मेरे पहले सीखे हुए पाठ की अनुप्रेक्षा आवृत्ति वरावर नही होती जिसके बिना पूर्व का ज्ञान शिथिल होता जा रहा है।"
आचार्य ने ऐसे मेधावी शिष्य की यह स्थिति देख कर विचार किया कि भावी सन्तान का मेधावल अति मद होता जा रहा है । अत: शास्त्र के अनुयोगो को मूल से पृथक् कर देना चाहिये । यह सोच समझकर अन्त मे आर्य रक्षित ने शास्त्र के ४ अनुयोगो को गूल से पृथक् कर दिया 11८८॥
आर्य रक्षित का शास्त्रीय ज्ञान
॥ लावणी ॥ सूक्ष्म तत्व के ज्ञाता सुरपति पूजे, विचरत प्राये मथुरा को प्रति वूझे। भूतगुहा व्यंतर के स्थान टिकावे, सीमघर पै शक तभी चल पावे। निगोद की वागरणा पूछे सारी ले कर०॥८६॥ सुन के बोला, प्रभो ! भरत में को है, जिनवर बोले रक्षित जग में सो है। कर ब्राह्मण का रूप स्थविर हो पाया, एकाकी प्राचार्य देख चल पाया।
पूछे मेरी प्रायु कहो श्रुतधारी ॥ले कर०॥६०॥ अर्थः-आर्य रक्षित सूक्ष्म तत्व के ज्ञाता थे। विचरण करते हुए एक दिन आप मथुरा नगरी पधारे और वहाँ भूत गुहा नामक व्यतर के स्थान मे विराजे । उस समय शकेन्द्र सीमधर प्रभु की सेवा मे महाविदेह क्षेत्र मे गया हुआ था । वहा निगोट का विस्तृत विवेचन सुनकर वह बोला, "भगवन् ! भरत क्षेत्र मे भी इस प्रकार का विवेचन व्याख्या करने वाला कोई है ?"