________________
आचार्य चरितावली
४५
अर्थ -आर्य रक्षित मुनि, भाई को वही दीक्षित कर अपना ज्ञानाभ्यास करते रहे। नवदीक्षित फल्गु रक्षित भी यह सोचकर कि विना भाई को साथ लिये मा के पास जाकर क्या कहूंगा, वही ठहरे रहे । दशवे पूर्व के जपितो ( पाठो ) मे घुल कर एक दिन रक्षित ने गुरु से पूछा, "भगवन् ! कितना पढना शेष है ?"
गुरु बोले, "शिष्य । विन्दु मिलाया है, अभी सिन्धु जितना ज्ञान मिलाना शेप है।"
रक्षित निराश हुए। उनको खिन्न देखकर आर्यवज्र ने कहा "कुछ काल ठहरो तो अच्छा", पर आर्य रक्षित अव माता के पास जाने के लिये चंचल-चित्त हो उठे । अतः गुरु ने भी अवसर देखकर माता के पास जाने की अनुमति उन्हे प्रदान कर दी ।।४।।
॥ लावणी ॥ दशपुर जा मुनि सबको धर्म सुनाया, माता भगिनी संयम पद अवघाया। वृद्ध खंत भी संग उन्ही के रहता, पर लज्जावश लिंग ग्रहण नहीं करता।
रक्षित ने दी सीख उन्हे कई बारी ॥ले कर०॥५॥ ___ अर्थ:-गुरु से अनुमति पाकर मुनि आर्य रक्षित दशपुर आये और सब परिजनो को धर्म सुनाकर मा एव वहन आदि को प्रव्रज्या ग्रहण कराई । वृद्ध पुरोहित भी सग रहने लगा, पर लज्जावश उसने मुनि वेष ग्रहण नही किया । आर्य रक्षित ने उनको युक्ति पूर्वक समझाया और उन्हे सही मार्ग मे स्थित करने का प्रयत्न किया ।।८।।
॥ लावणी ॥ वस्त्र युगल छत्रादि छूट मै लेऊ, रक्षित ने किया मान्य प्रव्रज्या देऊ । कटि-पट करलो धार खत तब वोला, छत्र बिना नहीं चले उसे भी खोला। करक जनेऊ आदिक भी लिये धारी ले कर०॥८६॥