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प्राचार्य चरितावली
रक्षित तुम बाहर कैसे हो ठहरे, भद्रगुप्त की शिक्षा से दिये डेरे ।
हेतु जान कर गरिब ने बात विचारी लेकर ॥२॥ अर्थः-प्रात काल आर्यवज्र स्वप्न के फलाफल पर विचार कर ही रहे थे कि सहसा आर्य रक्षित प्रा पहुँचे । उनको देख कर आर्यवज्र ने . पूछा “कहाँ से आ रहे हो?”
रक्षित ने कहा, "प्राचार्य तौसलिपुत्र के पास से आ रहा हूँ।"
आर्यवज्र ने पूछा, “रक्षित । तुम अलग उपाश्रय मे कैसे ठहरे हो?"
रक्षित ने भद्रगुप्त की शिक्षा से अलग ठहरने की वात बतलाई, आर्यवज्र ने भी हेतु समझकर सतोष प्रकट किया ।।२।।
लावरणी।। अल्पकाल में नव पुरव लिये घारी, दशम पूर्व का चला पाठ हितकारी। मात पिता अब हुए स्नेह में प्राकुल, लघु भाई संग कहा रटे मां प्रतिपल ।
प्राने पर हम भी ले व्रत स्वीकारी लेकर०॥८३॥ अर्थः-विनय पूर्वक अभ्यास करते हुए रक्षित ने अल्पकाल मे ही नव पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया। दशवे पूर्व का अभ्यास चल रहा था, उस समय माता ने पुत्रवियोग से पाकुल होकर छोटे भाई फल्गु रक्षित को भेज कर आर्य रक्षित को संदेश कहलाया कि तुम्हारे आने पर हम भी व्रत ग्रहण करेगे, अतः एक वार जल्दी आकर मा से मिलो।।८।।
॥ लावणी ॥ दीक्षित कर भाई को ज्ञान मिलाते, जपितो में घुल पूछे गुरु बतलाते। बिन्दु मिलाया सागर शेष रहाया, खिन्न जान कहै वज़ ठहर कुछ भाया। चंचलता लख फिर अनुमति दे डारीले कर०॥८४॥