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________________ प्राचार्य चरितावली श्रमण-श्रमणी भी माला के मोती की तरह एक दूसरे से वढ-चढ कर दीप्तिमान थे अत. प्रभु महावीर का शासन तेजोमय दीपता रहा ॥१०॥ ॥ लावणी ॥ घर में पीछे पुत्र हुआ सुखदाई, मनक नाम से बतलाती थी माई। भाग्य योग से उसने सन्मति पाई, मित्रजनो ने उसको कड़ी सुनाई। खेल-खेल में मित्रों ने कही खारी ॥ लेकर० ॥११॥ अर्थ - शय्यंभव जव दीक्षा लेने को तैयार हुए तब उनकी पत्नी सगर्भा थी । सम्बन्धियो ने उनसे गर्भ के सम्बन्ध मे पूछा, तव उसने लज्जावश कहा-"मनाक् = कुछ है।" जव कुछ समय के वाद पुत्र का जन्म हुआ तो लोग उसे 'मनक' नाम से पुकारने लगे। किसी समय वालमण्डल के साथ खेलते हुए मनक को साथियो ने खेलखेल में यह कह डाला कि "वाप का तो पता ही नही है और वडी-बडी वाते मारता है।" भाग्ययोग से मनक की मति वदल गई ॥११॥ || लावणी ॥ पूछे मात से तात कहाँ बतलाओ, बोले जननी गुरुचरणो में जाओ । तात तुम्हारे सयम व्रत ले चाले, ' गर्भकाल से मैने तुमको पाले । अनुमति लेकर चला बाल सुविचारी लेकर०॥ १२ ।। - अर्थ.- मनक भी मित्रो की बात सुनकर खेलता-कूदता भूल गया और माँ के पास आकर पूछने लगा,-"माता मेरे पिता कौन और कहाँ है ? माता वोली,-"वेटा तुम्हारे पिता ने तो तुम्हारे जन्म से पहले सयमव्रत ले रखा है । मै ही गर्भकाल से तुम्हारा पालन करती आ रही हूँ। तुमको यदि दर्शन करने है तो गुरुचरणो मे जाग्रो, वहा तुम्हारे पिता मिलेगे। वालक मनक माता की अनुमति प्राप्त कर, पिता शय्यंभव के दर्शन को चल पड़ा ।।१२।। ॥ लावणी ॥ चंपा के स्थंडिल में दर्शन पाये,
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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