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________________ १२८ प्राचार्य चरितावली प्रभुवीर पट्टावलो के अनुसार स. १६३६ में जन्म और १६६० में । दीक्षा लेने का उल्लेख है । आचार्य पद की तिथि भी प्राचीन पत्र मे सं० १६८८ और प्रभुवीर पट्टावली मे सं० १६७७ लिखी गई है। सवत् १७३४ में ६६ दिन के सथारे के बाद आपका स्वर्गवास हुआ। शिवजी ऋषि के सम्बन्ध मे कुछ विशिष्ट घटनाओ का विवरण मिलता है, जो इस प्रकार है श्री रत्नसिहजी ऋषि जब जामनगर पधारे तव तेजवाई जो अपुत्रा थी, आपको वदन करने आई । रत्न ऋषिजी ने सहजभाव से कह - "बाई । धर्म को श्रद्धा से सुख संतति मिलती है, धर्म पर श्रद्धा रख।" तेजवाई ने श्रद्धा के साथ रत्न ऋपिजी के इस वचन को स्वीकार किया । सयोगवश तेजवाई के पाच पुत्र हो गये । कालान्तर मे पूज्य रत्न ऋषिजी फिर वहा पधारे और तेजवाई वन्दन करने के लिये अपने पुत्रो को साथ लिये आई। तेजबाई जव ऋपिजी को वदन कर रही थी उस समय उसके वडे पुत्र शिवजी पूज्य रत्न ऋषिजी की गोद में जा कर वैठ गये। यह देख कर तेजबाई ने कहा-"महाराज यह वालक आपके पास ही रहना चाहता है, अतः आप इसे अपना शिष्य बना लीजिये।" पूज्य रत्न ऋषिजी ने वालक व बालक की मां की इच्छा देखकर शिवजी को अपने पास रखकर पढाना प्रारम्भ कर दिया। थोडे ही समय मे तीक्ष्ण बुद्धि वाले शिवजी शास्त्रो के अच्छे जाता बन गये। 'शिवजी ने सवत् १६६० मे दीक्षा ग्रहण की और स० १६७७ मे आपको प्राचार्य पद पर आसीन किया गया । दूसरी विशिष्ट घटना इस प्रकार है कि एकदा पूज्य शिवजी ऋषि ने पाटण मे चातुर्मास किया। वहा उनकी उत्तरोत्तर वढती हुई कोति को चैत्यवासी सहन नही कर सके और उनके विरुद्ध बादशाह को भडकाने के लिये उनमे से कुछ प्रमुख व्यक्ति वादशाह के पास दिल्ली गये । यह घटना स० १६८३ की थी। उस समय दिल्ली के तख्त पर "शाहजहा" था।
SR No.010198
Book TitleJain Acharya Charitavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Gajsingh Rathod
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1971
Total Pages193
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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