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आचार्य चरितावली
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लुधियाना से प्राचार्य श्री ने एक सदेश प्रेपित किया कि साधु-साध्वी भले ही परम्परानुसार श्रावण मे पर्व मनावे किन्तु श्रावकसघ को सार्वजनिक रूप से भादवा मे शास्त्र आदि सुनाने अर्थात् छुट्टी आदि समाज के व्यावहारिक कार्य एक दिन किये जाय । शासनहित को ध्यान में रख कर सबने इस शर्त के साथ स्वीकार किया कि आगे के लिये स्थाई निर्णय एक वर्ष के अन्दर अन्दर हो जाना चाहिये ।
पहले की तरह इस बार भी महासभा की तरफ से इस वचन का पालन नही हया। दूसरी साल पक्खी-पत्र और जैन पचांग का निर्णय भी समय पर नहीं हो सका । फलस्वरूप अलग अलग पक्खी-पत्र निकलने लगे ।।१९५॥
लावरणी।। जैन जगत् में पर्व न एक मनाया, सोरठ में दो पर्द प्रथम ही आया। श्रमरणसंघ की उलझी गुत्थी सवाई, सबके मन थी अपनी मान बड़ाई। दलवन्दी ने सव ही वात विसारी॥ लेकर० ॥१६६।।
पर्व की भिन्नता अर्थ :-कार्यकत्तानो की अदूरदर्शितापूर्ण नीति से श्वेताम्बर समाज मे तीन पर्व मनाये गये । तेरापंथ, दिगम्बर और श्रमणसघानुयायी स्थानकवासियो ने भादवा सुदी ५ को, श्वेताम्बर तपागच्छ के अनुयायियो ने भादवा सुदी ४ को, खरतरगच्छ, आँचल गच्छ और सौराष्ट्र के स्थानकवासियो ने प्राय श्रावण में पर्व मनाया । इस प्रकार समाज छिन्न-भिन्न हो गया। सौराष्ट्र मे अलग अलग पर्व मनाने का प्रसंग पहला ही था । इस प्रकार श्रवणसघ की गुत्थी अधिक उलझ गई। संघ के हित की अपेक्षा सब अपनी-अपनी वात के लिये चितित थे। काफ़स के अधिकारी भी अपनी वात को सही साबित करने की धुन मे रहे। परिणामस्वरूप अधिकारी समाज मे अपनी विश्वस्तता खो बैठे ।।१६६||