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आचार्य चरितावली
|| लावणी ॥ वित्तहारी अब दुर्मत हरने वाला, कर्मशूर से धर्मशूर हुआ प्राला । ज्ञान क्रिया से शासन को दीपाया, अपने पद पर पटधारी नही पाया,
श्रुतवल से आगे की बात विचारी ॥ लेकर० ॥६॥ अर्थ -विध्य-नरेश का प्रिय पुत्र प्रभवसिह जो कभी चोर के रूप मे कुख्यात था, वही अव दुर्मति हरनेवाला सत हो गया, दुष्कर्मकर्ता धर्मनेता बन गया। उन्होने ग्यारह वर्ष तक प्राचार्य पद पर रहकर ज्ञान-क्रिया से शासन को दीपाया । अन्त में अपने पद पर योग्य उत्तराधिकारी को न पाकर श्रुतनान के बल से भविष्य की बात सोचने लगा ॥६॥
॥ लावणी ॥ राजगृह मे शय्यमव को जाना, प्रतिवोधन हित मुनि द्वय को भिजवाना। आ मुनि बोले तत्त्व न जाना भाई, सुनकर चौंके याज्ञिक मन के मांहीं ।
कहे गरु से सत्य बात कहो सारी ॥ लेकर० ॥७॥ अर्थ -आचार्य प्रभव ने श्रुतज्ञान मे उपयोग लगाकर राजाही के शय्यभव भट्ट को योग्य उत्तराधिकारी समझा । फलस्वरूप उसको प्रतिवोध देने के लिये मुनियुगल को प्रेपित किया । शय्यभव के द्वार पर पहुँच कर मुनियो ने कहा,-"हा कष्टं तत्त्वं न जात" । याजिक शय्यंभव इस बात को सुनकर मन ही मन चौका और कलाचार्य के पास जाकर पूछने लगा, “सत्य वतलामो तत्त्व क्या है ?" ॥७॥
॥ लावणी ॥ कलाचार्य भयभीत कहे सुन स्याना,
तत्त्व जिनेश्वर मार्ग रती नहि छाना । प्रभवसूरि से भेद समझकर जानो,
दुखमुक्ति का मार्ग वही पहिचानो। यज्ञ दिलावे स्वर्ग न भवभय हारी ॥ लेकर० ॥८॥