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भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
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इसमें भाषा और अभिनय दोनों में हास्य है । पागलों के प्रलाप पर कौन नहीं हँसता ।
'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' और 'विषस्य विषमौषधम्' व्यंग्यप्रधान रचना हैं । इनमें तो जहाँ-तहाँ व्यंग्य की तीखी बौछारें मिलेंगी ही, 'प्रेम योगिनी' में भी व्यंग्य के अच्छे छींटे उड़ाये गए हैं :
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"धनदास - तो महाराज के कबौ समर्पन किए हो कि नाहीं ?
बनितादास — कौन चीज ?
धनदास - अरे कोई चौंकाली ठल्ली मावड़ी पामली अपने घर वाली । वनितादास - अरे भाई गोसाइयन पर तो ससुरी सब आप भहराई पड़ थीं । पवित्र हो के वास्ते हम का पहुँचैवे ।
धनदास — इन सबन का भाग बडा तेज है । मालो लूटें मेहररुवो लूटें ।”
ऊपर वैष्णव-परम्परा और पद्धतियों पर करारी चोट की गई है । 'प्रेमयोगिनी' का काशी-वर्णन भी कम हास्यास्पद नहीं ।
"देखी तुमरी कासी लोगो देखी तुमरी कासी, जहाँ बिराजै बिश्वनाथ विश्वेश्वर जी अविनासी । आधी कासी माट भँडेरिया ब्राह्मन श्री संन्यासी, आधी कासी रंडी मुडी राँड खानगी खासी । लोग निकम्मे भंगी गंजड़ लुच्चे बेविस्वासी, महा आलसी झूठे शोहदे वे फिकरे वदमासी ।
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अमीर सब झूठे प्रो निन्दक करें घात विस्वासी, सिपारसी डर, पुकने सिट्टू बोलें बात प्रकासी । मैली गली भरी कतवारन सड़ी चमारन पासी, नीचे नल से बदबू उबलै मानो नरक चौरासी ।'
हास्य में सुरुचि की रक्षा करना बहुत बड़ी सफलता है । भारतेन्दु के हास्य में अश्लीलता या भौंडापन नहीं आने पाया है, यह प्रसन्नता की बात है । पर इनके हास्य में कहीं-कहीं वीभत्स रस की छाया स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। मांस-मदिरा - मत्स्य आदि के भक्षण के विषय में हास्य लिखने में वीभत्सता को नहीं बचाया जा सकता :
"बलिदान वालों का कूद-कूद कर बकरा काटना, बकरों का तड़पता और चिल्लाना, मदिरा के घड़ों की शोभा योर बीच में होम का कुण्ड, उसमें मांस